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________________ १७६ . . अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . . [संक्षिप्त पापुराण राजपुत्रने कहा-मैं सब बातोंका भलीभाँति अपनी स्त्रीके बर्तावके सम्बन्धमें पूछा। लोगोंने भी विचार करके ही आपके पास आया हूँ। यह आपके अपनी-अपनी रुचिके अनुसार उत्तर दिया। कोई घरमें रहे, अब मैं जाता हूँ। राजकुमारके प्रबन्धको उत्तम बताते थे। कुछ नौजवान राजकुमारके यों कहनेपर वे फिर बोले- भैया ! उनकी बात सुनकर आश्चर्यमें पड़ जाते थे और कुछ लोग इस शोभासम्पन्न नगरमें बहुतेरे कामी पुरुष भरे पड़े हैं। इस प्रकार उत्तर देते थे-'भाई ! तुमने अपनी स्त्री उसे यहाँ किसी स्त्रीके सतीत्वकी रक्षा कैसे हो सकती है।' सौंप दी है और वह उसीके साथ शयन करता है। स्त्री राजकुमार पुनः बोले-'जैसे भी हो, रक्षा कीजिये। मैं और पुरुषमें एकत्र संसर्ग होनेपर दोनोंके मन शान्त कैसे तो अब जाता हूँ।' गृहस्थ अद्रोहकने धर्मसंकटमें पड़कर रह सकते हैं।' अद्रोहकने अपने धर्माचरणके बलसे कहा-'तात ! मैं उचित और हितकारी समझकर इसके लोगोंकी कुत्सित चर्चा सुन ली। तब उनके मनमें साथ सदा अनुचित बर्ताव करूँगा और उसी अवस्थामें लोकनिन्दासे मुक्त होनेका शुभ संकल्प प्रकट हुआ। ऐसी स्त्री सदा मेरे घरमें सुरक्षित रह सकती है। अन्यथा उन्होंने स्वयं लकड़ी एकत्रित करके एक बहुत बड़ी चिता इस अरक्ष्य वस्तुकी रक्षाके लिये आप ही कोई अनुकूल बनायी और उसमें आग लगा दी। चिता प्रज्वलित हो और प्रिय उपाय बतलाइये। इसे मेरी शय्यापर मेरे एक उठी। इसी समय प्रतापी राजकुमार अद्रोहकके घर आ ओर मेरी स्त्रीके साथ शयन करना होगा। फिर भी यदि पहुंचे। वहां उन्होंने अद्रोहक तथा अपनी पत्नीको भी आप इसे अपनी वल्लभा समझें, तब तो यह रह सकती देखा। पत्नीका मुख प्रसन्नतासे खिला हुआ था और है; नहीं तो यहाँसे चली जाय।' अद्रोहक अत्यन्त विषादयुक्त थे। उन दोनोंकी मानसिक यह सुनकर राजकुमारने एक क्षणतक कुछ विचार स्थिति जानकर राजकुमारने कहा-'भाई ! मैं आपका किया; फिर बोले-'तात ! मुझे आपकी बात स्वीकार मित्र हूँ और बहुत दिनोंके बाद यहाँ लौटा हूँ। आप मुझसे है। आपको जो अनुकूल जान पड़े, वही कीजिये।' ऐसा बातचीत क्यों नहीं करते?' कहकर राजकुमार अपनी पत्नीसे बोले-'सुन्दरी ! तुम इनके कथनानुसार सब कार्य करना, तुमपर कोई दोष नहीं आयेगा। इसके लिये मेरी आज्ञा है।' यों कहकर वे अपने पिता महाराजके आदेशसे गन्तव्य स्थानको चले गये। तदनन्तर रातमें अद्रोहकने जैसा कहा था, वैसा ही किया। वे धर्मात्मा नित्यप्रति दोनों स्त्रियोंके बीच में शयन करते थे। फिर भी वे अपनी और परायी स्त्रीके विषयमें कभी धर्मसे विचलित नहीं होते थे। अपनी स्त्रीके स्पर्शसे ही उनके मनमें कामोपभोगकी इच्छा होती थी। इधर राजकुमारकी स्त्रीके स्तन भी बार-बार उनकी पीठमें लग जाते थे; किन्तु उसका उनके प्रति वैसा ही भाव होता था, जैसा बालक पुत्रका माताके स्तनोंके प्रति होता है। वे प्रतिदिन उसके प्रति मातृभावको ही दृढ़ रखते थे। क्रमशः उनके हृदयसे स्त्री-संभोगकी इच्छा ही जाती रही। इस प्रकार छः मास व्यतीत होनेपर राजकुमारीके पति अद्रोहकके नगरमें आये। उन्होंने लोगोंसे अद्रोहक तथा
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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