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________________ ૨૭૪ • अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् • -------------------------- पतिव्रता बोली- ब्रह्मन् ! इस समय मुझे पतिदेवकी पूजा करनी है, अतः अवकाश नहीं है; इसलिये आपका कार्य पीछे करूंगी। इस समय मेरा आतिथ्य ग्रहण कीजिये । श्रीभगवान् बोले- 'मुनिश्रेष्ठ ! आओ, मैं उसके पास चलता हूँ।' यों कहकर भगवान् जब चलने लगे, तब [ संक्षिप्त पद्मपुराण ************* ब्राह्मणने पूछा- 'तुलाधार कहाँ रहता है ?' श्रीभगवान् ने कहा- जहाँ मनुष्यों की भीड़ एकत्रित है और नाना प्रकारके द्रव्योंकी बिक्री हो रही है, उस बाजारमें तुलाधार वैश्य इधर-उधर क्रय-विक्रय करता है। उसने कभी मन, वाणी या क्रियाद्वारा किसीका कुछ बिगाड़ नहीं किया, असत्य नहीं बोला और दुष्टता नहीं की। वह सब लोगोंके हितमें तत्पर रहता है। सब प्राणियोंमें समान भाव रखता तथा ढेले, पत्थर और सुवर्णको समान समझता है। लोग जौ, नमक, तेल, घी, अनाजकी ढेरियाँ तथा अन्यान्य संगृहीत वस्तुएँ उसकी जबानपर ही लेते-देते हैं। वह प्राणान्त उपस्थित होनेपर भी सत्य छोड़कर कभी झूठ नहीं बोलता । इसीसे वह धर्म- तुलाधार कहलाता है। श्रीभगवान् के यों कहनेपर ब्राह्मणने नाना प्रकारके रसोंको बेचते हुए तुलाधारको देखा। वह बिक्रीकी वस्तुओंके सम्बन्धमें बातें कर रहा था। बहुत से पुरुष और स्त्रियाँ उसे चारों ओरसे घेरकर खड़ी थीं। ब्राह्मणको उपस्थित देख तुलाधारने मधुर वाणीमें पूछा ब्राह्मण बोला – कल्याणी! मेरे शरीरमें इस समय भूख, प्यास और थकावट नहीं है। मुझे अभीष्ट बात बताओ, नहीं तो तुम्हें शाप दे दूँगा । तब उस पतिव्रताने भी कहा – 'द्विजश्रेष्ठ ! मैं बगला नहीं हूँ, आप धर्म- तुलाधारके पास जाइये और उन्हींसे अपने हितकी बात पूछिये' यों कहकर वह महाभागा पतिव्रता घरके भीतर चली गयी। तब ब्राह्मणने चाण्डालके घरकी भाँति वहाँ भी विप्ररूपधारी भगवान्‌को उपस्थित देखा। उन्हें देखकर वह बड़े विस्मयमें पड़ा और कुछ सोच-विचारकर उनके समीप गया । घरमें जानेपर उसे हर्षमें भरे हुए ब्राह्मण और उस पतिव्रताके भी दर्शन हुए। उन्हें देखकर नरोत्तम ब्राह्मणने कहा - 'तात ! देशान्तरमें जो घटना घटी थी, उसे इस पतिव्रता देवीने भी बता दिया और चाण्डालने तो बताया ही था। ये लोग उस घटनाको कैसे जानते हैं? इस बातको लेकर मुझे बड़ा विस्मय हो रहा है। इससे बढ़कर महान् आश्चर्य और क्या हो सकता है। 'ब्रह्मन् ! यहाँ कैसे पधारना हुआ ?" ब्राह्मणने कहा- मुझे धर्मका उपदेश करो, मैं इसीलिये तुम्हारे पास आया हूँ। - श्रीभगवान् बोले – तात ! महात्मा पुरुष अत्यन्त पुण्य और सदाचारके बलपर सबका कारण जान लेते हैं, जिससे तुम्हें विस्मय हुआ है। मुने! बताओ, इस समय उस पतिव्रताने तुमसे क्या कहा है ? तुलाधार बोला - विप्रवर! जबतक लोग मेरे पास रहेंगे, तबतक मैं निश्चिन्त नहीं हो सकूँगा। पहरभर राततक यही हालत रहेगी। अतः आप मेरा उपदेश मानकर धर्माकरके पास जाइये। बगलेकी मृत्युसे होने ब्राह्मणने कहा- वह तो मुझे धर्म- तुलाधारसे वाला दोष और आकाशमें धोती सुखानेका रहस्य - प्रश्न करनेके लिये उपदेश देती है। सभी बातें आगे आपको मालूम हो जायेंगी। धर्माकरका नाम अद्रोहक है। वे बड़े सज्जन हैं। उनके पास जाइये। वहाँ उनके उपदेशसे आपकी कामना सफल होगी। भर्तुराज्ञां न लया मनोवाक्कायकर्मभिः। भुक्ते पतौ सदा चाति सा च भार्या पतिव्रता ॥ यस्यां यस्यां तु शय्यायां पतिरस्वपिति यनतः । तत्र तत्र च सा भर्तुरच करोति नित्यशः ॥ नैव मत्सरतां याति न कार्पण्यं न मानिनी माने माने समानत्वं या पश्येत् सा पतिव्रता ॥ सुवेषं या नरं दृष्ट्वा भ्रातरं पितरं सुतम्। मन्यते च परं साध्वी सा च भार्या पतिव्रता ॥ (४७।५५ – ६० )
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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