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________________ सृष्टिखण्ड ] . पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पञ्चमहायज्ञ . ९७१ उसके द्वारा सातों द्वीपोंसे युक्त समूची पृथ्वीको परिक्रमा समझने लगा, मेरे समान पुण्यात्मा और महायशस्वी हो जाती है। माता-पिताको प्रणाम करते समय जिसके दूसरा कोई नहीं है। एक दिन वह मुख ऊपरकी ओर हाथ, घुटने और मस्तक पृथ्वीपर टिकते हैं, वह अक्षय करके यही बात कह रहा था, इतने में ही एक बगलेने स्वर्गको प्राप्त होता है।* जबतक माता-पिताके चरणोंकी उसके मुँहपर बीट कर दी। तब ब्राह्मणने क्रोधमें आकर रज पुत्रके मस्तक और शरीरमें लगती रहती है, तभीतक वह शुद्ध रहता है। जो पुत्र माता-पिताके चरणकमलोंका जल पीता है, उसके करोड़ों जन्मोंके पाप नष्ट हो जाते है। वह मनुष्य संसारमें धन्य है। जो नीच पुरुष माता-पिताकी आज्ञाका उल्लङ्घन करता है, वह महाप्रलयपर्यन्त नरकमें निवास करता है। जो रोगी, वृद्ध, जीविकासे रहित, अंधे और बहरे पिताको त्यागकर चला जाता है वह रौरव नरकमें पड़ता है। इतना ही नहीं, उसे अन्त्यजों, म्लेच्छों और चाण्डालोंकी योनिमें जन्म लेना पड़ता है। माता-पिताका पालन-पोषण न करनेसे समस्त पुण्योंका नाश हो जाता है। माता-पिताकी आराधना न करके पुत्र यदि तीर्थ और देवताओंका सेवन भी करे तो उसे उसका फल नहीं मिलता। ब्राह्मणो! इस विषयमें मैं एक प्राचीन इतिहास कहता हूँ, यत्नपूर्वक उसका श्रवण करो। इसका श्रवण करके भूतलपर फिर कभी तुम्हें मोह नहीं व्यापेगा। पूर्वकालकी बात है-नरोत्तम नामसे प्रसिद्ध एक उसे शाप दे दिया। बेचारा बगला राखकी ढेरी होकर ब्राह्मण था। वह अपने माता-पिताका अनादर करके पृथ्वीपर गिर पड़ा। बगलेकी मृत्यु होते ही नरोत्तमके तीर्थसेवनके लिये चल दिया। सब तीर्थोंमें घूमते हुए भीतर महामोहने प्रवेश किया। उसी पापसे ब्राह्मणका उस ब्राह्मणके वस्त्र प्रतिदिन आकाशमें ही सूखते थे। वस्त्र अब आकाशमें नहीं ठहरता था। यह जानकर उसे इससे उसके मनमें बड़ा भारी अहङ्कार हो गया। वह बड़ा खेद हुआ। तदनन्तर आकाशवाणीने कहा * पित्रोरथ पत्युश्च साम्यं सर्वजनेषु च। मित्रानोहो विष्णुभक्तिरेते पञ्च महामखाः ॥ प्राक् पित्रोरर्चया विप्रा यद्धर्म साधयेन्नरः । न तत्क्रतुशतैरेव तीर्थयात्रादिभिर्भुवि ॥ पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमं तपः । पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्वदेवताः॥ पितरो यस्य तृष्यन्ति सेक्या च गुणेन च । तस्य भागीरथीनानमहन्यहनि वर्तते ॥ सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता । मातरं पितरं तस्मात् सर्वयलेन पूजयेत् ॥ मातरं पितरश्चैव यस्तु कुर्यात् प्रदक्षिणम्। प्रदक्षिणीकृता तेन सप्तद्वीपा वसुन्धरा ।। जानुनी च करौ यस्य पित्रोः प्रणमतः शिरः । निपतन्ति पृथिव्यां च सोऽक्षय लभते दिवम्॥ (४७१७-१३) + रोगिणं चापि वृद्धं च पितरं वृत्तिकर्शितम् । विकल नेत्रकर्णाभ्यां त्यक्त्वा गच्छेच रौरवम् ॥ (४७।१९)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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