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________________ सृष्टिखण्ड ] ********** द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन गुरु, अपने मस्तक, पुष्पवाले वृक्ष तथा यज्ञोपयोगी पेड़का स्पर्श नहीं करना चाहिये। सूर्य, चन्द्रमा और नक्षत्र — इन तीन प्रकारके तेजोंकी ओर जूठे मुँह कभी दृष्टि न डाले। इसी प्रकार ब्राह्मण, गुरु, देवता, राजा, श्रेष्ठ संन्यासी, योगी, देवकार्य करनेवाले तथा धर्मका उपदेश करनेवाले द्विजकी ओर भी जूठे मुँह दृष्टिपात न करे। नदियों और समुद्र के किनारे, यज्ञ-सम्बन्धी वृक्षकी जड़के पास, बगीचेमें, फुलवारीमें, ब्राह्मणके निवास स्थानपर, गोशालामें तथा साफ-सुथरी सुन्दर सड़कोंपर तथा जलमें कभी मल त्याग न करे। धीर पुरुष अपने हाथ, पैर, मुख और केशोंको रूखे न रखे। दाँतोंपर मैल न जमने दे। नखको मुँहमें न डाले। रविवार और मंगलको तेल न लगाये। अपने शरीर और आसनपर ताल न दे। गुरुके साथ एक आसनपर न बैठे। श्रोत्रियके धनका अपहरण न करे। देवता और गुरुका भी धन न ले । राजा, तपस्वी, पशु, अंधे तथा स्त्रीका धन भी न ले। ब्राह्मण, गौ, राजा, रोगी भारसे दबा हुआ मनुष्य, गर्भिणी स्त्री तथा अत्यन्त दुर्बल पुरुष सामनेसे आते हों तो स्वयं किनारे होकर उन्हें जानेके लिये रास्ता दे । राजा, ब्राह्मण तथा वैद्यसे झगड़ा न करे। ब्राह्मण और गुरु- पत्नीसे दूर ही रहना चाहिये। पतित, कोढ़ी, चाण्डाल, गोमांस भक्षी और समाजबहिष्कृतको दूरसे ही त्याग दे। जो स्त्री दुष्टा, दुराचारिणी, कलङ्क लगानेवाली, सदा ही कलहसे प्रेम करनेवाली, प्रमादिनी, निडर, निर्लज्ज, बाहर घूमने-फिरनेवाली, अधिक खर्च करनेवाली और सदाचारसे हीन हो, उसको भी दूरसे ही त्याग देना चाहिये। बुद्धिमान् शिष्यको उचित है कि वह रजस्वला अवस्थामें गुरुपत्नीको प्रणाम न करे, उसका चरण स्पर्श न करे; यदि उस अवस्थामें भी वह उसे छू ले तो पुनः स्नान करनेसे ही उसकी शुद्धि होती है। शिष्य गुरु-पत्नीके साथ खेल-कूदमें भी भाग न ले। उसकी बात अवश्य सुने; किन्तु उसकी ओर आँख उठाकर देखे नहीं । पुत्रवधू, भाईकी स्त्री, अपनी पुत्री, गुरुपली तथा १६९ अन्य किसी युवती स्त्रीकी ओर न तो देखे और न उसका स्पर्श करे। उपर्युक्त स्त्रियोंकी ओर भौंहें मटकाकर देखना, उनसे विवाद करना और अश्लील वचन बोलना सदा ही त्याज्य है। भूसी, अंगारे, हड्डी, राख, रूई, निर्माल्य (देवताको अर्पण की हुई वस्तु), चिताकी लकड़ी, चिता तथा गुरुजनोंके शरीरपर कभी पैर न रखे। अपवित्र, दूसरेका उच्छिष्ट तथा दूसरेकी रसोई बनानेके लिये रखा हुआ अत्र भोजन न करे। धीर पुरुष किसी दुष्टके साथ एक क्षण भी न तो ठहरे और न यात्रा ही करे। इसी प्रकार उसे दीपककी छायामें तथा बहेड़ेके वृक्षके नीचे भी खड़ा नहीं होना चाहिये । अपनेसे छोटेको प्रणाम न करे। चाचा और मामा आदिके आनेपर उठकर आसन दे और उनके सामने हाथ जोड़कर खड़ा रहे। जो तेल लगाये हो [किन्तु स्नान न किये हो], जिसके मुँह और हाथ जूठे हों, जो भीगे वस्त्र पहने हो, रोगी हो, समुद्रमें घुसा हो, उद्विग्न हो, भार ढो रहा हो, यज्ञ कार्यमें लिप्त हो, स्त्रियोंके साथ क्रीड़ामें आसक्त हो, बालकके साथ खेल कर रहा हो तथा जिसके हाथोंमें फूल और कुश हों, ऐसे व्यक्तिको प्रणाम न करे। मस्तक अथवा कानोंको ढककर, जलमें खड़ा होकर, शिखा खोलकर, पैरोंको बिना धोये अथवा दक्षिणाभिमुख होकर आचमन नहीं करना चाहिये। यज्ञोपवीतसे रहित या नग्न होकर, कच्छ खोलकर अथवा एक वस्त्र धारण करके आचमन करनेवाला पुरुष शुद्ध नहीं होता। पहले तर्जनी, मध्यमा और अनामिका - तीन अंगुलियोंसे मुखका स्पर्श करे, फिर अँगूठे और तर्जनीके द्वारा नासिकाका, अंगूठे और अनामिकाके द्वारा दोनों नेत्रोंका, कनिष्ठिका और अंगूठेके द्वारा दोनों कानोंका, केवल अँगूठेसे नाभिका करतलसे हृदयका सम्पूर्ण अंगुलियोंसे मस्तकका तथा अंगुलियोंके अग्रभागसे दोनों बाहुओंका स्पर्श करके मनुष्य शुद्ध होता है। इस विधिसे आचमन करके मनुष्यको संयमपूर्वक रहना चाहिये। ऐसा करनेसे वह सब पापोंसे मुक्त होकर अक्षय स्वर्गका उपभोग करता है। भीगे पैर सोना, सूखे पैर भोजन करना और अँधेरेमें शयन तथा भोजन करना
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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