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________________ सृष्टिखण्ड] • पार्वतीका जन्म, मदन-दहन, पार्वतीका तप तथा उनका शिवजीके साथ विवाह . १४५ है-शायद वे मेरे साथ अपनी कन्याके विवाहकी बात तुम निर्मल ज्ञानकी मूर्ति-सी जान पड़ती हो और स्वीकार न करें। इसमें सन्देह नहीं कि जो लोग श्रीशङ्करजीमें दृढ़ अनुराग रखनेके कारण हमारे कार्यसिद्धिके लिये उद्यत होते हैं, वे सभी उत्कण्ठित रहा अन्तःकरणको अत्यन्त प्रसन्न कर रही हो। हम भगवान् करते हैं। उत्कण्ठा होनेपर बड़े-बड़े महात्माओंके चित्तमें शिवके अद्भुत ऐश्वर्यको जानते हैं, केवल तुम्हारे भी उतावली पड़ जाती है। तथापि विशिष्ट व्यक्तियोंको निश्चयकी दृढ़ता जाननेके लिये यहाँ आये थे। अब लोक-मर्यादाका अनुसरण करना ही चाहिये। क्योंकि तुम्हारी यह कामना शीघ्र ही पूरी होगी। अपने इस इससे धर्मकी वृद्धि होती है और परवर्ती लोगोंके लिये मनोहर रूपको तपस्याकी आगमें न जलाओ। कल भी आदर्श उपस्थित होता है।' प्रातःकाल भगवान् शङ्कर स्वयं आकर तुम्हारा पाणिग्रहण भगवान्के ऐसा कहनेपर सप्तर्षिगण तुरंत करेंगे। हमलोग पहले आकर तुम्हारे पिताजीसे भी हिमालयके भवनमें गये। वहाँ हिमवान्ने बड़े आदरके प्रार्थना कर चुके हैं। अब तुम अपने पिताके साथ घर साथ उनका पूजन किया। उससे प्रसन्न होकर वे मुनिश्रेष्ठ जाओ, हम भी अपने आश्रमको जाते हैं। उनके इस उतावलीके कारण संक्षेपसे बोले- 'गिरिराज ! तुम्हारी प्रकार कहनेपर पार्वती यह सोचकर कि तपस्याका यथार्थ पुत्रीके लिये साक्षात् पिनाकधारी भगवान् शङ्कर तुमसे फल प्राप्त हो गया, तुरंत ही पिताके शोभासम्पन्न दिव्य याचना करते है। अतः तुम अपनी पुत्री भगवान् भवनमें चली गयीं। वहाँ जानेपर गिरिजाके हृदयमें श्रीशंकरको समर्पित करके अपनेको पावन बनाओ। यह भगवान् शङ्करके दर्शनकी प्रबल उत्कण्ठा जाग्रत् हुई। देवताओंका कार्य है। जगत्का उद्धार करनेके लिये ही अतः उसे वह रात एक हजार वर्षांक समान जान पड़ी। यह उद्योग किया जा रहा है। उनके ऐसा कहनेपर तदनन्तर ब्राह्म-मुहूर्तमें उठकर सखियोंने पार्वतीका हिमवान् आनन्द-विभोर हो गये। तब वे हिमवान्को माङ्गलिक कार्य करना आरम्भ किया। क्रमशः नाना साथ ले पार्वतीके आश्रमपर गये। उमा तपस्याके कारण प्रकारके मङ्गल विधान यथार्थ-रूपसे सम्पन्न किये गये। तेजोमयी दिखायी दे रही थी। उसने अपने तेजसे सूर्य सब प्रकारको कामनाएँ पूर्ण करनेवाली ऋतुएँ मूर्तिमान् और अग्निकी ज्वालाको भी परास्त कर दिया था। होकर गिरिराज हिमालयकी उपासना करने लगीं। मुनियोंने जब रोहपूर्वक उसका मनोगत भाव पूछा तो सुखदायिनी वायु झाड़ने-बुहारनेके काममें लगी थी। उस मानिनीने यह सारगर्भित वचन कहा-'मैं चिन्तामणि आदि रत्र, तरह-तरहकी लताएँ तथा पिनाकधारी भगवान् रुद्रके सिवा दूसरे किसीको नहीं कल्पतरु आदि बड़े-बड़े वृक्ष भी वहाँ सब ओर चाहती। वे ही छोटे-बड़े सब प्राणियोंमें [आत्मारूपसे] उपस्थित थे। दिव्य ओषधियोंके साथ साधारण स्थित हैं, वे ही सबको समृद्धि प्रदान करनेवाले हैं। ओषधियाँ भी दिव्य देह धारण करके सेवामें संलग्न थीं। धीरता और ऐश्वर्य आदि गुण उन्हींमें शोभा पाते हैं; वे रस और धातुएँ भी वहाँ दास-दासीका काम करती थीं। तुलनारहितं महान् प्रमाण हैं, उनके सिवा दूसरी कोई नदियाँ, समुद्र तथा स्थावर-जङ्गम सभी प्राणी मूर्तिमान वस्तु है ही नहीं। यह सारा जगत् उन्हींसे उत्पन्न होता है। होकर हिमवान्की महिमा बढ़ा रहे थे। जिनका ऐश्वर्य आदि, अन्तसे रहित है, उन्हीं भगवान् दूसरी ओर निर्मल शरीरवाले देवता, मुनि, नाग, शङ्करकी शरणमें मैं आयी हूँ।' यक्ष, गन्धर्व और किन्नरगण श्रीशङ्करजीके शृङ्गारकी सारी पार्वतीदेवीके ये वचन सुनकर वे मुनिश्रेष्ठ बहुत सामग्री सजाये गन्धमादन पर्वतपर उपस्थित हुए। प्रसन्न हुए। उनके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू उमड़ आये ब्रह्माजीने श्रीशङ्करजीके जटा-जूटमें चन्द्रमाकी कला और उन्होंने तपस्विनी गिरिजाकी प्रशंसा करते हुए मधुर सजायी। भगवान् श्रीविष्णु रत्नके बने कर्णभूषण, वाणीमें कहा-'अहो ! बड़ी अद्भुत बात है। बेटी ! उज्ज्वल कण्ठहार और भुजङ्गमय आभूषण लेकर
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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