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________________ सृष्टिखण्ड] . पार्वतीका जन्म, मदन-दहन, पार्वतीका तप तथा उनका शिवजीके साथ विवाह . १४१ - पुलस्त्यजी कहते हैं-राजन् ! नारदजीके मुँहसे विचार करते हुए सोचा कि 'महात्मा पुरुष निष्कम्पये सारी बातें सुनकर मेनाके स्वामी गिरिराज हिमालयने अविचल होते हैं। उनके मनको वशमें करना अत्यन्त अपना नया जन्म हुआ माना। वे अत्यन्त हर्षमें भरकर दुष्कर कार्य है। उसे पहले ही क्षुब्ध करके उसके ऊपर बोले-'प्रभो! आपने घोर और दुस्तर नरकसे मेरा विजय पायी जाती है। पहले मनका संशोधन कर लेनेपर उद्धार कर दिया। मुने! आप-जैसे संतोंका दर्शन निश्चय ही प्रायः सिद्धि प्राप्त होती है। मैं महादेवजीके ही अमोघ फल देनेवाला होता है। इसलिये इस अन्तःकरणमें प्रवेश करके इन्द्रिय-समुदायको व्याप्त कर कार्यमें-मेरी कन्याके विवाहके सम्बन्धमें आप समय- रमणीय साधनोंके द्वारा अपना कार्य सिद्ध करूँगा।' यह समयपर योग्य आदेश देते रहे [जिससे यह कार्य सोचकर कामदेव भगवान् भूतनाथके आश्रमपर गया। निर्विघ्नतापूर्वक सम्पन्न हो सके।' वह आश्रम पृथ्वीका सारभूत स्थान जान पड़ता था। गिरिराजके ऐसा कहनेपर नारदजी हर्षमें भरकर वहाँकी वेदी देवदारुके वृक्षसे सुशोभित हो रही थी। बोले-'शैलराज ! सारा कार्य सिद्ध ही समझो। ऐसा कामदेवने, जिसका अन्तकाल क्रमशः समीप आता जा करनेसे ही देवताओंका भी कार्य होगा और इसीमें रहा था, धीरे-धीरे आगे बढ़कर देखा-भगवान् शङ्कर तुम्हारा भी महान् लाभ है।' यों कहकर नारदजी ध्यान लगाये बैठे हैं। उनके अधखुले नेत्र अर्धदेवलोकमें जाकर इन्द्रसे मिले और बोले-'देवराज! विकसित कमलदलके समान शोभा पा रहे हैं। उनकी आपने मुझे जो कार्य सौंपा था, उसे तो मैंने कर ही दिया; दृष्टि सीधी एवं नासिकाके अग्रभागपर लगी हुई है। किन्तु अब कामदेवके बाणोंसे सिद्ध होने योग्य कार्य शरीरपर उत्तरीयके रूपमें अत्यन्त रमणीय व्याघ्रचर्म उपस्थित हुआ है।' कार्यदर्शी नारद मुनिके इस प्रकार लटक रहा है। कानोंमें धारण किये हुए सर्पोके फोंसे कहनेपर देवराज इन्द्रने आमकी मञ्जरीको ही अस्त्रके निकली हुई फुफकारकी आँचसे उनका मुख पिङ्गल रूपमें प्रयोग करनेवाले कामदेवका स्मरण किया। उसे वर्णका हो रहा है। हवासे हिलती हुई लम्बी-लम्बी सामने प्रकट हुआ देख इन्द्रने कहा- 'रतिवल्लभ ! जटाएँ उनके कपोल-प्रान्तका चुम्बन कर रही हैं। तुम्हें बहुत उपदेश देनेकी क्या आवश्यकता है; तुम तो वासुकि नागका यज्ञोपवीत धारण करनेसे उनकी नाभिके सङ्कल्पसे ही उत्पन्न हुए हो, इसलिये सम्पूर्ण प्राणियोंके मूल भागमें वासुकिका मुख और पूंछ सटे हुए दिखायी मनकी बात जानते हो । स्वर्गवासियोंका प्रिय कार्य करो। देते हैं। वे अञ्जलि बाँधै ब्रह्मके चिन्तनमें स्थिर हो रहे मनोभव ! गिरिराजकुमारी उमाके साथ भगवान् शङ्करका है और सर्पोक आभूषण धारण किये हुए हैं। शीघ्र संयोग कराओ। इस मधुमास चैत्रको भी साथ लेते तदनन्तर वृक्षकी शाखासे भ्रमरकी भाँति झंकार जाओ तथा अपनी पत्नी रतिसे भी सहायता लो।' करते हुए कामदेवने भगवान् शङ्करके कानमें होकर कामदेव बोला-देव ! यह सामग्री मुनियों और हृदयमें प्रवेश किया। कामका आधारभूत वह मधुर दानवोंके लिये तो बड़ी भयंकर है, किन्तु इससे भगवान् झंकार सुनकर शङ्करजीके मनमें रमणकी इच्छा जाग्रत् शङ्करको वशमें करना कठिन है। हुई और उन्होंने अपनी प्राणवल्लभा दक्षकुमारी सतीका इन्द्रने कहा-'रतिकान्त ! तुम्हारी शक्तिको मैं स्मरण किया। तब स्मरण-पथमें आयी हुई सती उनकी जानता हूँ तुम्हारे द्वारा इस कार्यके सिद्ध होने में तनिक निर्मल समाधि-भावनाको धीरे-धीरे लुप्त करके स्वयं ही भी सन्देह नहीं है।' लक्ष्य-स्थानमें आ गयीं और उन्हें प्रत्यक्ष रूपमें इन्द्रके ऐसा कहनेपर कामदेव अपने सखा उपस्थित-सी जान पड़ीं। फिर तो भगवान् शिव उनकी मधुमासको लेकर रतिके साथ तुरंत ही हिमालयके सुधमें तन्मय हो गये। इस आकस्मिक विनने उनके शिखरपर गया। वहाँ पहुँचकर उसने कार्यक उपायका अन्तःकरणको आवृत्त कर लिया। देवताओंके अधीश्वर
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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