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________________ १३२ • अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पयपुराण आश्चर्य हुआ। वे उस बालकका वृत्तान्त जाननेके लिये ही हूँ। मैं दयापरायण धर्म और दूधसे भरा हुआ उत्सुक हो गये। उनके मनमें यह संदेह हुआ कि मैंने महासागर हूँ तथा जो सत्यस्वरूप परम तत्त्व है, वह भी कभी इसे देखा है। यह सोचकर वे उस पूर्व-परिचित मैं ही हूँ। एकमात्र मैं ही प्रजापति हूँ। मैं ही सांख्य, मैं बालकको देखनेके लिये आगे बढ़े। उस समय उनके ही योग और मैं ही परमपद है। यज्ञ, क्रिया और नेत्र भयसे कातर हो रहे थे। उन्हें आते देख ब्राह्मणोंका स्वामी भी मैं ही हूँ। मैं ही अग्नि, मैं ही वायु, बालरूपधारी भगवान्ने कहा-'मार्कण्डेय ! तुम्हारा मैं ही पृथ्वी, मैं ही आकाश और मैं ही जल, समुद्र, स्वागत है। तुम डरो मत, मेरे पास चले आओ।' नक्षत्र तथा दसों दिशाएँ हूँ। वर्षा, सोम, मेघ और मार्कण्डेय बोले-यह कौन है, जो मेरा तिरस्कार हविष्य-इन सबके रूपमें मैं ही हैं। क्षीरसागरके भीतर करता हुआ मुझे नाम लेकर पुकार रहा है? तथा समुद्रगत बडवाग्निके मुखमें भी मेरा ही निवास है। भगवान्ने कहा-बेटा ! मैं तुम्हारा पितामह, मैं ही संवर्तक अग्नि होकर सारा जल सोख लेता हूँ। मैं आयु प्रदान करनेवाला पुराणपुरुष हूँ। मेरे पास तुम क्यों ही सूर्य हूँ। मैं ही परम पुरातन तथा सबका आश्रय हूँ। नहीं आते। तुम्हारे पिता आङ्गिरस मुनिने पूर्वकालमें भविष्यमें भी सर्वत्र में ही प्रकट होऊँगा। तथा भावी पुत्रकी कामनासे तीव्र तपस्या करके मेरी ही आराधना की सम्पूर्ण वस्तुओंकी उत्पत्ति मुझसे ही होती है। विप्रवर ! थी। तब मैंने उन अमिततेजस्वी महर्षिको तुम्हारे-जैसा संसारमें तुम जो कुछ देखते हो, जो कुछ सुनते हो और तेजस्वी पुत्र होनेका सच्चा वरदान दिया था। जो कुछ अनुभव करते हो उन सबको मेरा ही स्वरूप यह सुनकर महातपस्वी मार्कण्डेयजीका हृदय समझो।* मैंने ही पूर्वकालमें विश्वकी सृष्टि की है तथा प्रसन्नतासे भर गया, उनके नेत्र आश्चर्यसे खिल उठे। वे आज भी मैं ही करता हूँ। तुम मेरी ओर देखो। मस्तकपर अञ्जलि बाँधे नाम-गोत्रका उच्चारण करते हुए मार्कण्डेय ! मैं ही प्रत्येक युगमें सम्पूर्ण जगत्की रक्षा भक्तिपूर्वक भगवान्को नमस्कार करने लगे और करता हूँ। इन सारी बातोंको तुम अच्छी तरह समझ लो। बोले-'भगवन् ! मैं आपकी मायाको यथार्थरूपसे यदि धर्मके सेवन या श्रवणकी इच्छा हो तो मेरे उदरमें जानना चाहता हूँ: इस एकार्णवके बीच आप बालरूप रहकर सुखपूर्वक विचरो। मैं ही एक अक्षरका और मैं धरकर कैसे सो रहे हैं?' ही तीन अक्षरका मन्त्र हैं। ब्रह्माजी भी मेरे ही स्वरूप श्रीभगवान्ने कहा-ब्रह्मन् ! मैं नारायण हूँ। है। धर्म-अर्थ-कामरूप त्रिवर्गसे परे ओङ्कारस्वरूप जिन्हें हजारों मस्तकों और हजारों चरणोंसे युक्त बताया परमात्मा, जो सबको तात्त्विक दृष्टि प्रदान करनेवाले हैं, जाता है, वह विराट परमात्मा मेरा ही स्वरूप है। मैं मैं ही हूँ। सूर्यके समान वर्णवाला तेजोमय पुरुष हैं। मैं इस प्रकार कहते हुए उन महाबुद्धिमान् पुराणपुरुष देवताओंको हविष्य पहुँचानेवाला अग्नि हूँ और मैं ही परमेश्वरने महामुनि मार्कण्डेयको तुरंत ही अपने मुँहमें ले सात घोड़ोंके रथवाला सूर्य हूँ। मैं ही इन्द्रपदपर प्रतिष्ठित लिया। फिर तो वे मुनिश्रेष्ठ भगवान्के उदरमें प्रवेश कर होनेवाला इन्द्र और ऋतुओंमें परिवत्सर हूँ। सम्पूर्ण प्राणी गये और नेत्रके सामने एकान्त स्थानमें धर्म श्रवण तथा समस्त देवता मेरे ही स्वरूप है। मैं सोंमें शेषनाग करनेकी इच्छासे बैठे हए अविनाशी हंस भगवानके पास और पक्षियोंमें गरुड़ हूँ। सम्पूर्ण भूतोंका संहार उपस्थित हुए। भगवान् हंस अविनाशी और विविध करनेवाला काल भी मुझे ही समझना चाहिये। समस्त शरीर धारण करनेवाले हैं। वे चन्द्रमा और सूर्यसे रहित आश्रमोंमें निवास करनेवाले मनुष्योंका धर्म और तप मैं प्रलयकालीन एकार्णवके जलमें धीरे-धीरे विचरते तथा • यत्किञ्चित्पश्यसे विप्र यच्छृणोषि च किंचन ॥ यच्चानुभवसे लोके तत्सर्व मामनुस्मर। (३६ । १३४-१३५)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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