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________________ • अर्चयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पयपुराण भी यह चराचर जगत् है, सबको आदिकर्ता भगवान् ऋषियों तथा अन्यान्य प्राणियोंके भी वेदानुकूल नाम ब्रह्माने उत्पन्न किया। उन उत्पन्न हुए प्राणियोंमेंसे जिन्होंने और उनके यथायोग्य कर्मोको भी ब्रह्माजीने ही निश्चित पूर्वकल्पमें जैसे कर्म किये थे, वे पुनः बारम्बार जन्म किया। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न ऋतुओंके बारम्बार लेकर वैसे ही कोंमें प्रवृत्त होते हैं। इस प्रकार भगवान् आनेपर उनके विभिन्न प्रकारके चिह्न पहलेके समान ही विधाताने ही इन्द्रियोंके विषयों, भूतों और शरीरोंमें प्रकट होते हैं, उसी प्रकार सृष्टिके आरम्भमें सारे पदार्थ विभिन्नता एवं पृथक्-पृथक् व्यवहार उत्पन्न किया। पूर्व कल्पके अनुसार ही दृष्टिगोचर होते हैं । सृष्टि के लिये उन्होंने कल्पके आरम्भमें वेदके अनुसार देवता आदि इच्छुक तथा सृष्टिकी शक्तिसे युक्त ब्रह्माजी कल्पके प्राणियोंके नाम, रूप और कर्तव्यका विस्तार किया। आदिमें बारम्बार ऐसी ही सृष्टि किया करते हैं। ___ यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्गों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन भीष्मजीने कहा-ब्रह्मन्! आपने अक्स्रिोत अनुसार रची हुई प्रजा उत्तम श्रद्धाके साथ श्रेष्ठ नामक सर्गका जो मानव सर्गके नामसे भी प्रसिद्ध है, आचारका पालन करने लगी। वह इच्छानुसार जहाँ संक्षेपसे वर्णन किया; अब उसीको विस्तारके साथ चाहती, रहती थी। उसे किसी प्रकारकी बाधा नहीं कहिये। ब्रह्माजीने मनुष्योंकी सृष्टि किस प्रकार की? सताती थी। समस्त प्रजाका अन्तःकरण शुद्ध था। वह महामुने ! प्रजापतिने चारों वर्षों तथा उनके गुणोंको कैसे स्वभावसे ही परम पवित्र थी। धर्मानुष्ठानके कारण उसकी उत्पन्न किया? और ब्राह्मणादि वर्णोक कौन-कौन-से पवित्रता और भी बढ़ गयी थी। प्रजाओंके पवित्र कर्म माने गये हैं? इन सब बातोंका वर्णन कीजिये। अन्तःकरणमें भगवान् श्रीहरिका निवास होनेके कारण पुलस्त्यजी बोले-कुरुश्रेष्ठ ! सृष्टिकी इच्छा सबको शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता था, जिससे सब लोग रखनेवाले ब्रह्माजीने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और श्रीहरिके 'परब्रह्म' नामक परमपदका साक्षात्कार कर शूद्र-इन चार वर्णोको उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण लेते थे। मुखसे, क्षत्रिय वक्षःस्थलसे, वैश्य जाँघोंसे और शूद्र तदनन्तर प्रजा जीविकाके साधन उद्योग-धंधे और ब्रह्माजीके पैरोंसे उत्पन्न हुए। महाराज ! ये चारों वर्ण खेती आदिका काम करने लगी। राजन् ! धान, जौ, यज्ञके उत्तम साधन है; अतः ब्रह्माजीने यज्ञानुष्ठानकी गेहूँ, छोटे धान्य, तिल, कैंगनी, ज्वार, कोदो, चेना, सिद्धिके लिये ही इन सबकी सृष्टि की। यज्ञसे तृप्त होकर उड़द, मूंग, मसूर, मटर, कुलथी, अरहर, चना और देवतालोग जलकी वृष्टि करते है, जिससे मनुष्योंकी भी सन-ये सत्रह ग्रामीण अत्रोंकी जातियाँ है। ग्रामीण तृप्ति होती है; अतः धर्ममय यज्ञ सदा ही कल्याणका हेतु और जंगली दोनों प्रकारके मिलाकर चौदह अन्न यज्ञके है। जो लोग सदा अपने वर्णोचित कर्ममें लगे रहते हैं, उपयोगमें आनेवाले माने गये हैं। उनके नाम ये हैंजिन्होंने धर्म-विरुद्ध आचरणोंका परित्याग कर दिया है धान, जौ, उड़द, गेहैं, महीन धान्य, तिल, सातवीं कैंगनी तथा जो सन्मार्गपर चलनेवाले हैं, वे श्रेष्ठ मनुष्य ही और आठवीं कुलथी-ये ग्रामीण अन्न है तथा साँवा, यज्ञका यथावत् अनुष्ठान करते हैं। राजन्! [यज्ञके तिन्नीका चावल, जर्तिल (वनतिल), गवेधु, वेणुयव द्वारा मनुष्य इस मानव-देहके त्यागके पश्चात् स्वर्ग और और मक्का-ये छः जंगली अन्न है। ये चौदह अन्न अपवर्ग भी प्राप्त कर सकते हैं तथा और भी जिस-जिस यज्ञानुष्ठानकी सामग्री है तथा यज्ञ ही इनकी उत्पत्तिका स्थानको पानेकी उन्हें इच्छा हो, उसी-उसीमें वे जा सकते प्रधान हेतु है। यज्ञके साथ ये अन्न प्रजाकी उत्पत्ति और है। नृपश्रेष्ठ ! ब्रह्माजीके द्वारा चातुर्वर्ण्य-व्यवस्थाके वृद्धिके परम कारण है; इसलिये इहलोक और परलोकके
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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