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रमण महाप
पड गया है । श्रीभगवान् के दो सहोदर भक्तो ने बाहर निकले हुए कन्दरा के हिस्से को बारूद से उडा दिया, इसके आगे एक दीवार खड़ी कर दी, उसमे एक दरवाजा लगा दिया और श्रीभगवान् गरमी के महीनो मे यही रहने लगे ।
सन् १९०० मे, श्रीभगवान् द्वारा पहाडी पर रहने के लिए जाने के थोडे अरसे बाद कुम्वाक्कोनम् निवासी नल्लापिल्लई नामक एक भक्त तिरुवन्नामलाई आये और उन्होने श्रीभगवान् का एक फोटो लिया । हमारे पास यही उनका सबसे प्रारम्भिक चित्र है । यह एक सुन्दर युवक का चेहरा है, परन्तु इससे श्रीभगवान् की शक्ति और गाभीर्य परिलक्षित होते है ।
पहाडी पर निवास के प्रारम्भिक वर्षो मे श्रीभगवान् मौनव्रत धारण किये हुए ये 1 उनके तेज से प्रभावित होकर कई भक्तजन उनके निकट आ गये थे और एक आश्रम की स्थापना हो चुकी थी । केवल साधक भक्तजन ही उनके निकट नही आते थे बल्कि सीधे-सादे लोग, बच्चे और यहाँ तक कि पशु भी उनके निकट आते थे । नगर के किशोर पहाडी पर चढ़कर विरूपाक्ष कन्दरा मे पहुँचते, उनके पास बैठते, खेलते-कूदते और खुशी-खुशी घर वापस लौट आते । गिलहरियाँ और बन्दर श्रीभगवान् के निकट आते और उनके हाथो से खाते ।
वह यदा-कदा ही अपने शिष्यो के लिए लिखकर निर्देश दिया करते थे । परन्तु उनके मौन के कारण उनके शिष्यो के प्रशिक्षण मे किसी प्रकार को वाघा नही पडती थी, क्योकि जब कभी वह भापण करते थे उनकी वास्तविक शिक्षा, दक्षिणामूत्ति की परम्परा मे मौन के माध्यम से हुआ करती थी । चीन के लाओ-त्सू और प्रारम्भिक लाओवादी सन्तो ने भी यही परम्परा प्रस्तुत की है । " वह ताओ जिसका नाम लिया जा सकता है, ताओ नही हैवह ज्ञान जो सूत्रबद्ध किया जा सकता है, सत्य ज्ञान नही है । यह मौन शिक्षा एक प्रत्यक्ष आध्यात्मिक प्रभाव था, जिसे मन ग्रहण करता था और बाद मे अपनी योग्यता के अनुसार इसकी व्याख्या करता था । प्रथम यूरोपीय दर्शक ने इसका इस प्रकार वर्णन किया है
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" कन्दरा मे पहुँचने के बाद हम उनके सम्मुख उनके चरणो मे चुप वैठ गये । हम इस प्रकार बहुत देर तक बैठे रहे और मैंने ऐसा अनुभव किया कि मैं अह की परिधि से परे उठ रही हूँ । मैं आघ घण्टे तक महपि की आँखो मे देखती रही, उनकी गहन चिन्तन की अभिव्यक्ति विलकुल परिवर्तित नही हुई । मैंने कुछ इस प्रकार अनुभव करना प्रारम्भ किया कि शरीर पवित्र आत्मा का मन्दिर है, मैं केवल यह अनुभव कर सकी कि उनका शरीर मानव नहीं है यह भगवान् का यत्र है, एक बैठा हुआ