SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वापसी का प्रश्न २७ वन्द करने के लिए मौनव्रत धारण कर रखा था। सासारिक आवश्यकताओ के अभाव के कारण, उन्हें बोलने की आवश्यकता ही नही होती थी। इसके अतिरिक्त उन्होंने यह बताया है कि एक मौनी को देखने के बाद उनके मन में यह विचार आया कि मौन धारण करने से उनकी शान्ति मे वाधा नही पडेगी। प्रारम्भ के महीनो मे जब वे आत्मानन्द मे लीन रहते थे तव प्राय उन्हे वाहरी दुनिया की विलकुल सुध-बुध नहीं रहती थी। उन्होने अपनी विशिष्ट शैली मे इस ओर निर्देश किया है __"कभी-कभी मैं अपनी आँखें खोलता तो सवेरा होता, कभी-कभी शाम होती। मुझे इसका पता नहीं था कि कव सूर्योदय हुआ और कब सूर्यास्त ।" कुछ सीमा तक भगवान् की यह अवस्था जारी रही, सामाय के स्थान पर केवल यह विरल हो गयी। बाद के वो मे श्रीभगवान् ने एक बार कहा था कि वह प्राय दैनिक वेद-मन्त्रो का प्रारम्भ सुनते थे और फिर समाप्ति, वह इनने तन्मय हो जाते थे कि मन्त्रो के प्रारम्भ और समाप्ति के बीच उन्हे और कुछ सुनायी नही देता था। उन्हे इस पर आश्चय होता था कि इतनी जल्दी कैसे मन्त्रो की समाप्ति हो गयी, कही वीच मे कुछ मन्त्र छूट तो नहीं गये । तिरुवन्नामलाई मे, प्रारम्भिक महीनो मे भी बड़े समारोहपूवक सब उत्सव मनाये जाते और बाद के वर्षों में स्वामी उन घटनाओ को दोहराया करते थे जो इस अवधि मे घटित हुई थी और जिनके सम्बन्ध मे लोगो का ऐसा खयाल पा कि स्वामी कुछ नही जानते । वाहरी ससार के प्रति पूण विमुखता और आत्मभाव मे पूर्णरूपेण स्थिति को निर्विकल्प समाधि की सज्ञा दी गयी है। यह परमानन्द की अवस्था है परन्तु यह स्थायी नहीं होती। श्रीभगवान् ने इसकी तुलना, महर्षोन गॉस्पल पुस्तक में कुएं मे हुवोई गयी वाल्टी से की है। वाल्टी मे पानी (मन) होता है जो कुएं (आत्मा) के पानी के साथ एकरूप हो जाता है परन्तु रस्सी और वाल्टी (अह) की अव भी सत्ता है जो इसे पुन बाहर निकाल लाते हैं। सर्वोच्च और अन्तिम अवस्था सहन समाधि की अवस्था है जिसकी ओर द्वितीय अध्याय मे सक्षेप में निर्देश किया गया है। यह शुद्ध अविच्छिन्न चैतन्य है, मानसिक और शारीरिक घरातल से ऊपर, परन्तु इसे वाहरी ससार का पूर्ण ज्ञान है और यह मानसिक तथा शारीरिक शक्तियो का पूण उपयोग करता है, यह पूण सतुलन, पूण समस्वरना, परमानन्द से भी परे की स्थिति है । इसकी तुलना उन्होंने महासागर में विलीन नदी के जल से की है। इस अवस्था मे अह अपनी समस्त सीमामो सहित सदा के लिये आत्म-तत्व मे लय हो जाता है । यह पूर्ण स्वतन्त्रता, विशुद्ध चैतन्य है, शुद्ध मह है, जो अब शरीर या व्यक्तित्व तक सीमित नहीं है।
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy