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________________ ३४ रमण महर्षि डाला गया, उन्होंने कोई उत्तर न दिया, सामान्य शब्दो मे एक सैद्धान्तिक बात कही और साथ ही प्रश्नकर्त्ता की आवश्यकता के अनुरूप उसके विशिष्ट प्रश्न का उत्तर भी दे दिया । श्रीभगवान् का यह दृढ़ विश्वास था कि जो कुछ होना है, वह होकर रहेगा । साथ ही वह यह भी कहते थे कि जो कुछ होता है वह मनुष्य के प्रारब्ध कर्म के अनुसार ही होता है । प्रारब्ध - कम का सिद्धान्त काय कारण के कठोर नियम के अनुसार इतनी दृढतापूर्वक लागू होता है कि 'न्याय' शब्द द्वारा भी इसकी अभिव्यक्ति नही हो सकती । श्रीभगवान् स्वतन्त्र इच्छा-शक्ति और दैववाद के विवाद मे कभी नही पडते थे, क्योकि इस प्रकार के सिद्धान्त यद्यपि मानसिक स्तर पर एक-दूसरे के विरोधी है, तथापि वे दोनो सत्य के पक्षो को प्रतिविम्बित करते हैं । वह कहा करते थे, “देखो, खोजो कौन दैवाधीन है और कौन स्वतन्त्र इच्छा-शक्ति रखता है ।" वह स्पष्टत कहा करते थे, "शरीर को जो भी क्रियाएँ सम्पन्न करनी हैं, वे सभी पहले ही इसके अस्तित्व मे आने के समय निर्धारित हो जाती है । आपको केवल इस बात की स्वतन्त्रता है कि आप अपने शरीर के साथ एकरूपता अनुभव करें या न करें ।” अगर कोई व्यक्ति किसी नाटक मे कोई पार्ट अदा करता है तो उसका सारा पार्ट पहले से लिखा होता और उसे वह पाट हूबहू बखूबी अदा करना पडता है, चाहे वह सीज़र बने, जिसे छुरा घोपा गया था, या ग्रूटस बने, जिसने छुरा घोपा था, उस पर इसका जरा भी प्रभाव नहीं पड़ता क्योकि वह यह अच्छी तरह जानता है कि न तो वह सीज़र है और न छूटम । इसी प्रकार जो व्यक्ति अमर आत्मा के साथ अपनी एकरूपता अनुभव करता है, वह मानवीय रंगमंच पर बिना भय या चिन्ता के, आशा या निराशा के अपना पाट अदा करता है, वह अदा किये जाने वाले पार्ट से विलकुल अप्रभावित रहता है अगर कोई यह पूछे कि जव व्यक्ति की सभी कियाएँ निर्धारित हैं, तो फिर उसकी वास्तविकता क्या है, उसके मन मे यह प्रश्न पैदा होना अनिवार्य है 'तब मैं कौन हूँ' ? अगर अह जो यह मोचता है कि वही निणय करता वास्तविक नही है, और फिर भी मैं जानता हूँ कि मेरी सत्ता है, तो फिर मेरी वास्तविकता क्या है यह केवल श्रीभगवान् द्वारा बतायी गयी तलाश का प्रारम्भिक मानमिक रूप है । परन्तु यही वास्तविक खोज की सर्वोत्तम तय्यारी है । ? पुनरपि प्रत्यक्षत विरोधी प्रतीत होने वाला यह विचार कि मनुष्य स्वय अपना भाग्य-निर्माता है, कम सत्य नही है, क्योकि प्रत्येक वस्तु कारक और कार्य के नियम द्वारा घटित होती है और प्रत्येक विचार, शब्द और क्रिया की अपनी प्रतिक्रिया होनी है । इस सम्वन्ध मे श्रीभगवान् इतने ही भटन थे जितने कि अन्य महापुरुष । उन्होंने अपने एक भक्त शिवप्रकाशम पिल्लई से
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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