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________________ २२ रमण महर्षि पर टिकी थी । वहाँ वह आत्मविभोर होकर बैठा रहा । लगातार कई दिन और रात वह बिना हिले बैठा रहा । अब उसे ससार की कोई आवश्यकता नही थी । परमसत्ता मे लीन वेंकटरमण को इस छायारूप विश्व मे कोई दिलचस्पी नही रही थी । कई सप्ताह तक बिना हिले और बिना कुछ वोले वह इसी अवस्था मे बैठा रहा । आत्म-साक्षात्कार के बाद जीवन की दूसरी अवस्था प्रारम्भ हुई। पहली अवस्था मे उस ऐश्वर्य को छुपाये रखा और अपने शिक्षको तथा वुजुर्गों के प्रति आज्ञाकारिता की भावना के साथ, जीवन की वर्तमान परिस्थितियो को स्वीकार कर लिया था । दूसरी अवस्था मे बाह्य ससार की पूर्ण उपेक्षा करते हुए वह अन्तर्मुख हुआ और यह अवस्था धीरे-धीरे तीसरी अवस्था मे परिणत हो गयी जो कि आधी शताब्दी तक रही । इस अवधि मे मध्याह्न-कालीन सूर्य के समान उन्होने उन सबको प्रकाशित किया जो उनकी शरण मे आये । ये अवस्थाएँ उनकी मानसिक स्थिति की बाह्य अभिव्यक्ति मात्र थी, उन्होने अनेक बार स्पष्ट रूप से यह घोषणा की थी कि उनके चैतन्य की अवस्था या आध्यात्मिक अनुभव मे कोई परिवर्तन या विकास बिलकुल नही हुआ था । शेषाद्रिस्वामी नाम के एक साधु कुछ वर्ष पूर्व तिरुवन्नामलाई मे आये थे । उन्होने ब्राह्मणस्वामी – जिस नाम से वेंकटरमण उस समय विख्यात थे—की देखभाल का काम अपने जिम्मे ले लिया । इससे सर्वथा लाभ हुआ हो, ऐसी वात नही है, क्योकि दूसरे लोग शेषाद्रि को थोडा विक्षिप्त समझते थे और यही कारण है कि स्कूल के लडके उसे तग किया करते थे । उन्होने अब उसके आश्रित, जिसे वे 'छोटा शेषाद्रि' कहते थे, को छेडना प्रारम्भ किया । उन्होंने उस पर पत्थर फेंकने शुरू किये, कुछ ने तो वालोचित निर्दयता के कारण और कुछ ने इस कारण कि उन्हें यह देखकर बहुत कुतूहल हुआ कि एक व्यक्ति जिसकी आयु उनसे बहुत अधिक नही थी, वुत की तरह बैठा हुआ था । एक लडके ने जैसा कि बाद मे बताया, वे उस पर इसलिए पत्थर फेंक रहे थे क्योकि वे यह जानना चाहते थे कि वह असली स्वामी है या नकली । शेपाद्रिस्वामी वच्चो को दूर रखने की कोशिश किया करते थे, बहुत सफलता नही मिली। कई बार तो इसका उल्टा इसलिए ब्राह्मणस्वामी ने पाताललिङ्गम् मे शरण ली स्तम्भो वाले महाकक्ष मे अँधेरा और सीलन से भरा एक सूर्य की किरणें प्रवेश नही कर पाती थी । मानव-प्राणी तो कदाचित ही इस स्थान मे प्रवेश करते थे, केवल कीडो और मच्छरो की वहाँ बहुतायत थी । वे उनकी जाँघो से चिपट गये, उनमे जरूम हो गये, तथा उनसे खून और पीप बहने लगी । अरुमो के निशान जीवन पर्यन्त बने रहे । उन्होने जो कुछ सप्ताह वहाँ यह लिगम सहस्र तहखाना था जहाँ परन्तु उन्हें असर होता था ।
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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