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________________ जागरण ग्रन्थो की भापा मे जागरण के वाद की इस स्थिति को जिममे में इस समय था, शुद्ध मनस् या विज्ञान या प्रकाश सम्पन्न की स्फुरणा कहते हैं।" यह उस रहस्यवादी की स्थिति मे नितान्त भिन्न था जो थोड़ी देर के लिए आनन्द की परम अवस्था में पहुँच जाता है, परन्तु फिर उसके चारो ओर अंधेरा छा जाता है। श्रीभगवान् पहले ही आत्म-तत्त्व के साथ निरन्तर एकरूप थे और उन्होंने स्पष्ट शब्दी मे कहा है, कि इसके बाद उन्ह और आध्यात्मिक साधना नहीं करनी पड़ी। आत्म-तत्त्व मे लीन होने के लिए उन्हें और प्रयास नहीं करना पड़ा क्योकि उस 'अह' का, जिसके विरोध के कारण सघर्प होता है, लोप हो चुका था और अब सघर्ष के लिए कोई वस्तु शेप नहीं बची थी। सामान्य वाह्य जीवन मे, आत्म-तत्त्व के माथ निरन्तर एकरूपता और अपने सानिध्य मे आने वाले भक्तो पर कृपा-दृष्टि का भाव म्वाभाविक और अनायास हो गया। इस प्रगति के वावजूद श्रीमगवान् का कथन है कि उनकी आत्मा एक नये आश्रय की खोज कर रही थी। एक ओर सन्तो का अनुकरण और दूसरी ओर यह चिन्ता कि बडे बुजुग क्या कहेंगे- ये विचार श्रीभगवान् के जीवन मे द्वित्व को व्यावहारिक स्वीकृति की ओर सकेत करते हैं, जिसका वाद मे लोप हो गया। इस निरन्तर प्रक्रिया का एक शारीरिक सकेत मी था। जागरण के समय से लेकर तिरुवन्नामलाई के देवालय मे प्रवेश तक श्रीभगवान् को शरीर मे लगातार ज्वलन की अनुभूति होती थी।
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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