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________________ जागरण के अथ और बादतो मे परिवर्तन हो गया। जो चीजें उसे पहले अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रतीत होती थी, अव उनका सारा आकपण जाता रहा, जीवन के परम्परागत ध्येय अवास्तविक हो गये । जिस वस्तु की पहले उपेक्षा की जाती थी वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रतीत होने लगी । इस चैतन्यमयी नवीन स्थिति के अनुरूप जीवन का अनुकूलन उस किशोर के लिए सरल नही रहा होगा जो अभी स्कूल का विद्यार्थी था और जिसने आध्यात्मिक जीवन का कोई सैद्धान्तिक प्रशिक्षण प्राप्त नही किया था । उसने इस बारे मे किसी मे बात नही की । वह परिवार में ही रहा और उसने स्कूल जाना जारी रखा । तथ्य तो यह है कि उसने बाह्य परिवर्तन कम से कम किया तथापि उसके परिवार के लोग अनिवायत' उसके परिवर्तित व्यवहार को जान गये और उन्होंने उसकी कई बातो का बुरा भी माना । इसका भी उसने वणन किया है " इस नये चैतन्य के परिणाम मेरे जीवन मे दृष्टिगोचर होने लगे । सवप्रथम मित्रो और सम्बन्धियो मे मैंने दिलचस्पी लेना बन्द कर दिया। मैं अपना अध्ययन यान्त्रिक भाव से करने लगा। मैं अपने सम्वन्धियो को सन्तुष्ट करने के लिए अपने सामने पुस्तक खोलकर बैठ जाता, परन्तु वस्तुस्थिति यह थी कि मेरा मन पुस्तक में बिलकुल नही लगता था । में लोगो के साथ व्यवहार मे अत्यन्त विनम्र और शान्त वन गया। पहले नगर मुझे दूसरे लडको की अपेक्षा अधिक काम दिया जाता तो मैं शिकायत किया करता था और अगर कोई लडका मुझे तग करता तो मैं उससे वदला लिया करता था। किसी भी लडके मे मेरा मजाक उड़ाने या मेरे साथ उच्छ्रु खलतापूयक व्यवहार करने का साहस नही था । अब सब कुछ बदल चुका था। मुझे जो भी काम दिया जाता, मैं उसे खुशी से करता । मुझे जितना भी तग किया जाता, मैं इसे शान्ति से सहन कर लेता । विक्षोभ और प्रतिशोध प्रदर्शित करने वाले मेरे अह का लोप हो चुका था। मैंने मित्रो के साथ खेलने के लिए बाहर जाना बन्द कर दिया और एकान्त पसन्द करने लगा। मैं प्राय व्यानावस्था मे अकेला बैठ जाता और आत्मा मे, स्वनिर्माण करने वाली शक्ति या धारा मे लीन हो जाता | मेरा वडा भाई मेरा मजाक उडाया करता था और व्यग्य से मुझे साघु अथवा 'योगी' कहा करता था तथा प्राचीन ऋषियो की तरह मुझे जगल मे जाने की सलाह दिया करता था । " दूसरा परिवर्तन मुझमे यह हुआ कि भोजन के सम्बन्ध मे मेरी कोई रुचि अरुचि नही रही। जो कुछ भी मेरे सम्मुख परोसा जाता, स्वादिष्ट या मस्वादिष्ट, अच्छा या बुरा, में उसे उदासीन भाव से निगल जाता । ११
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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