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________________ १८६ रमण महर्षि करता । डाक्टरो तथा कुछ भक्तो का भी यह विश्वास था कि भगवान को पीडा यी और बाद में इस पीडा ने भयानक रूप धारण कर लिया था । पीडा के प्रति श्रीभगवान् की उदासीनता और आपरेशन के समय पूर्ण निश्चिन्तता पर डाक्टर भी विस्मित थे। पीडा का प्रश्न, कर्म के प्रश्न की तरह, केवल द्वित्व के दष्टि विन्द से ही विद्यमान है, परन्तु उनके दृष्टि विन्दु मे, अद्वैत के दृष्टि विन्दु मे किमी की भी वास्तविकता नही थी। इसी अभिप्राय से उन्होने जनेक वार भक्तो से कहा था, "मैं केवल तभी रोगी हूँ, अगर आप मोचे कि मैं रोगी हैं, अगर आप यह सोचे कि मैं ठीक हूँ, तो मैं ठीक हो जाऊंगा। जब तक कोई भक्त अपने शरीर और उसकी पीडा की वास्तविकता मे विश्वास रखता है, जब तक उसके लिए उसके गुरु का शरीर वास्तविक है और उसे पीडा भी होती है।" मार्च मे आपरेशन के बाद एक या दो सप्ताह तक एक ग्रामीण जडीबूटियो के जानकार का इलाज चलता रहा, परन्तु इससे कोई लाभ नही हुआ। श्रीभगवान ने एक अन्य व्यक्ति को यह कह कर टाल दिया, "मुझे आशा है, अपनी दवाइयां आजमाने के बाद तुम निराश नहीं होगे।" भगवान् को अपनी शारीरिक दशा का तो कोई विचार ही नहीं था, उन्हें तो उन व्यक्तियो का खयाल आता था जो उनका उपचार करना चाहते थे। जिस डाक्टर के अन्तर्गत उनका उपचार चल रहा होता था उसके प्रति उनके हृदय मे अपार अनुराग का भाव था । प्राय वह इस बात का विरोध करते थे कि उनके शरीर की ओर बहुत अधिक ध्यान दिया जाये। कई वार जब उन्हे अपनी शारीरिक दशा मे सुधार प्रतीत होता तो वह यह घोपणा कर देते कि उन्ह और उपचार की आवश्यक्ता नहीं है। रसौली ने, जिसे अब डाक्टरो ने भ्रूणार्वद घोषित कर दिया था, उनकी रही सही शक्ति का भी शोपण कर दिया परन्तु उनके दुर्वल होने के बावजूद उनका चेहरा अधिक कोमल, अधिक उदार और अधिक सुन्दर होता गया । कई वार तो उनके सौन्दर्य को देखना अत्यन्त पीडाजनक था।। भगवान की भुजा भारी हो गयी थी, उसमे जलन हो रही थी और रसीली वट रही थी। कभी-कभी वह यह स्वीकार करते "भूजा मे पीडा है" परन्तु वह यह कभी नहीं कहते थे "मुझे पीडा है।" अगस्त मे तीसग आपरेशन हुआ और इम आशा मे कि प्रभावित तन्तु नष्ट हो जाये और रमौली फिर नहीं उमरेगी, घाव का रेडियम में उपचार किया गया। उमी मध्याह्न को आपरेशन के कुछ घण्टे बाद श्रीभगवान् ने इतनी अनुकम्पा की कि वह डिम्पेसरी ये वगमदे मे, जहाँ आपरेशन किया गया था, बैठ गये ताकि भक्तजन उनमें सामने से गुजरते हुए उनका दशन कर सकें। यह माफ प्रक्ट था कि वह अत्यन्त
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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