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________________ १७० रमण महपि यद्यपि इस प्रकार के व्यक्तियो की चर्चा आवश्यक है इससे यह कल्पना नही कर लेनी चाहिए कि इस प्रकार की घटनाएँ हमेशा घटित होती रहती थी । वह सदा विरल होती थी। श्रीभगवान् की विधियो के सम्बन्ध में किसी निश्चित सिद्धान्त की स्थापना करना अत्यन्त कठिन है क्योकि इसके अपवाद भी प्राय मिलते हैं । ऐसे भी उदाहरण थे, जव उनके आदेश सर्वथा स्पष्ट थे, विशेषकर जब कोई व्यक्ति उनके पास अकेला जाता । एक पशुओ के सेवानिवृत्त शल्य चिकित्सक श्री अनन्त नारायण राव ने आश्रम के निकट ही अपना मकान बनवाया था। उन्हे कई वार मद्रास से जरूरी बुलावा आया था जहां उनके बहनोई बहुत वीमार थे। एक बार उन्हे इस सम्बन्ध मे एक तार मिला । यद्यपि शाम को बहुत देर हो गयी थी, वह इस तार को लेकर मीधे भगवान् के पास गये । पहले कभी श्रीभगवान् ने इस ओर इतना ध्यान नहीं दिया था। परन्तु इस वार उन्होंने कहा, "हां, हाँ तुम जरूर जाओ।" और फिर उन्होने मृत्यु की तुच्छता के सम्बन्ध मे बातचीत करना शुरू कर दिया। अनन्त राव घर गये और उन्होने अपनी पत्नी से कहा कि इस वार यह घातक रोग सिद्ध होगा। वह वहनोई की मृत्यु से दो दिन पूर्व मद्रास पहुंचे। प्राय इस प्रकार के अन्य उदाहरण भी सुनने मे आते थे, जैसे एक भक्त से उन्होने ईशस्तुति के रूप मे 'रमण' का उच्चारण करने के लिए कहा था, परन्तु इनकी चर्चा वहुत कम होती थी। प्राय भक्त स्वय निर्णय करता और फिर अस्थायी रूप से इसकी घोषणा करता था । निणय उसकी साधना का भाव था। अगर निणय ठीक होता तो भगवान् स्वीकृति के रूप मे मुस्करा देते, भक्त का हृदय प्रफुल्लित हो उठता, यह एक प्रकार से श्रीमगवान् की सक्षिप्त शाब्दिक स्वीकृति थी। अगर भगवान् को भक्त का निर्णय स्वीकार्य न होता, तो वह भी प्राय प्रकट हो जाता । एक वार एक गृहस्थ ने तिरुवन्नामलाई छोड कर किसी दूसरे नगर में, जहाँ उसे पहले से अच्छा काम मिल सके, जाने का निर्णय किया। श्रीभगवान हंस पडे और कहने लगे "प्रत्येक व्यक्ति को योजना बनाने की स्वतन्त्रता है।" भक्त की योजना चरित्राथ नहीं हुई। जव देश के एक विख्यात राजनीतिक नेता सभाओ के आयोजन में सिलसिले मे मद्रास आये तो उनके एक प्रशसक आश्रमवासी ने श्रीभगवान् से मद्रास जाने की आज्ञा मांगी। श्रीभगवान् पत्थर की मूर्ति बनकर बैठ गये, मानो उन्होने कुछ सुना ही न हो। फिर भी आश्रमवासी मद्रास चला गया । वह एक सभा से दूसरी सभा मे गया था। या तो वह हमेशा वहुत देर से पहुँचता या फिर उसे प्रवेश नहीं मिलता था। जब वह मद्रास से वापस आया, भगवान
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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