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________________ १२२ रमण महर्षि "तव क्या आप हाड-मास, रक्त के बने और सुन्दर वस्त्र धारण किये हुए यह भौतिक शरीर ही हैं ?" "हाँ, ऐसा ही है, मैं इस भौतिक रूप में अपनी सत्ता से परिचित हूँ।" "आप अपने को शरीर कहते हैं क्योकि अब आपको अपने शरीर का ज्ञान है, परन्तु क्या आप यह शरीर हैं ? क्या गाढ निद्रा मे जव आपको अपने शरीर की सत्ता का ज्ञान नहीं होता, आप शरीर रूप हो सकते हैं ?" ___"हां, गाढ निद्रा मे भी मैं इसी शारीरिक रूप में विद्यमान रहता हूं, क्योकि जब तक मुझे नीद नही आती मुझे इस शरीर का ज्ञान रहता है परन्तु ज्योही मेरी नीद खुलती है मैं देखता हूँ कि मैं ठीक वही हूँ जो सोने से पहले था।" "और जब मृत्यु हो जाती है ?" । प्रश्नकर्ता योडी देर रुका और उसने एक क्षण सोच कर कहा, “हाँ, तब मुझे मृत समझ लिया जाता है और शरीर को दफना दिया जाता है।" "परन्तु आपने कहा था कि आपका शरीर आप है। जब इसे दफनाने के लिए ले जाया जाता है तो यह विरोध क्यो नहीं करता और कहता 'नही, नही, मुझे मत ले जाओ । यह सम्पत्ति जो मैंने इकट्ठी की है, यह वस्त्र जो मैं पहने हुए हूँ, यह वच्चे जिन्हे मैंने जन्म दिया है, यह सव मेरे है, मुझे इनके साथ रहना है।" तव आगन्तुक ने यह स्वीकार किया कि उसने गलती से अपने को शरीर समझ लिया था और कहा, "मैं शरीर मे जीवन हूं, म्वय शरीर नही हूँ।" तव श्रीभगवान् ने उसे समझाते हुए कहा, "अब तक आप अपने को गम्भीरतापूर्वक शरीर समझते थे और यह सोचते थे कि मेरा रूप है । यही मूल अज्ञान है जो सारे कष्ट की जड है । जब तक इस अज्ञान से छुटकारा नहीं पा लिया जाता और जब तक आप अपनी निराकार प्रकृति को नही पहचान लेते तव तक भगवान के सम्बन्ध मे यह तक करना कि वह साकार है या निराकार या जब वह वस्तुत निराकार है तव मूर्ति के रूप मे भगवान की पूजा करना उचित है या नही—यह सब बातें कोरा पाण्डित्य प्रदशन मात्र है। जब तक व्यक्ति निराकार आत्मा के दशन नही कर लेता, वह मच्चे अर्थो मे निराकार भगवान् की पूजा नही कर सकता।" ___ कई बार श्रीभगवान् के उत्तर सक्षिप्त और गूढ होते थ, कई बार पूण और व्याख्यात्मक होते थे, परन्तु हमेशा वह प्रश्नकर्ता की प्रकृति क अनुमार होते थे और सदा ही आश्चयजनक रूप से ठीक होते थे। एक बार एक नगा फकीर आया और लगभग एक सप्ताह तक जाश्रम मे रहा, बैठने समय वह अपनी दाहिनी भुजा को हमेशा ऊपर उठाये रहता था। उसने स्वय सभा-भवन मे प्रवेश नही किया वल्कि अन्दर यह प्रश्न भेजा, "मेरा भविप्य क्या होगा ?"
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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