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________________ ११६ रमण महर्षि ये । यूरोपीय, अमेरिकी, पारसी, यहूदी और मुस्लिम भी उनमे थे । हिन्दू भी विभिन्न जातियो के थे, केवल ब्राह्मण नही थे और विभिन्न राज्यो के थे । आश्रम का विशाल भोजन कक्ष और इसके साथ सलग्न पाकशाला एक पृथक् भवन मे थे | इसमे किसी प्रकार का फरनीचर नही था । पत्तलें और बाद के वर्षों में केले के पत्ते दो पक्तियो मे भोजन कक्ष मे विछा दिये जाते थे और उनके आगे लाल टाइलो वाले फर्श पर भक्तगण पालथी मार कर बैठ जाते थे । भवन के बीच मे चौडाई की ओर तीन-चौथाई हिस्से मे विभाजन कर दिया गया था । इसके एक ओर वह कट्टरपथी ब्राह्मण बैठते थे जो दूसरी जाति के लोगो के साथ मिल कर नही खाते थे । दूसरी ओर अ-ब्राह्मण, विदेशी तथा वह ब्राह्मण बैठते थे जो अन्य सव के साथ मिल कर खाना पसन्द करते थे । भगवान् न तो कट्टर पथी नियमो के पालन के लिए कहते थे और न इनका निषेध करते थे । वह स्वय बीच मे दीवार का सहारा लेकर बैठते थे, जहाँ वह दोनो दलो को दिखायी देते थे । भोजन कक्ष के अतिरिक्त अन्यत्र जाति-भेद की सर्वथा उपेक्षा कर दी गयी थी। सभा कक्ष मे भगवान् के आगे सभी ब्राह्मण, विदेशी तथा निम्न जाति के लोग एक-दूसरे के साथ बैठते थे । भगवान् की उपस्थिति का प्रभाव इतना व्यापक, इतना शक्तिशाली और इतना तीव्र था कि सभी भेद-भाव लुप्त हो जाते थे । प्रात काल और सायकाल वेद मंत्रो के पाठ के समय सभी इकट्ठे वैठते थे हालाँकि कट्टर पथी लोगो के अनुसार, केवल ब्राह्मणो को ही वेद मंत्रो के सुनने का अधिकार है। एक वार उत्तर भारत के एक आगतुक ने इस पर आक्षेप किया । भगवान् ने उसे टका सा जवाब दे दिया कि वह अपनी साधना में लीन रहें और उन वातो की चिन्ता न करें जिनका उनसे सम्बन्ध नही है । आश्रम मे विदेशी आगन्तुको पर धर्म-परिवर्तन के लिए कोई दवाव नही डाला जाता था । इसकी आवश्यकता भी नही थी क्योकि अद्वैत सामान्यत धर्म का सार है जोर अन्तिम सत्य है । ताओवाद, वोद्ध धम और हिन्दू धम मे स्पष्टत इसे इस रूप में स्वीकृति प्रदान की जाती है। पश्चिमी धर्मों मे यह अधिक प्रच्छन्न है । इस्लाम के सूफी सन्तो ने शाहद का वास्तविक अर्थ यही स्वीकार किया है भगवान् के अतिरिक्त अन्य कोई देवता नही है, आत्मा के अतिरिक्त कोई आत्मा नही है, सत्ता के अतिरिक्त अन्य कोई सत्ता नही है । भगवान् अक्सर ओल्ड टेस्टामेण्ट से, मुसा को दिये गये भगवान् का नाम उद्धृत किया करते थे 'मैं वह हूँ,' वह इमे सर्वाधिक उपयुक्त नाम समझते थे, केवल 'मैं हूँ' आत्मा, सत्ता । वह यह पद भी उद्धृत किया करते थे " शान्त हो जाओ और यह सोचो कि मैं भगवान् हूँ ।" इसकी व्यारया करते हुए वह कहा
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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