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________________ २८ प्रेक्षाध्यान मे भावना के बिना किचित् भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता। वांछनीय संस्कारो के निर्माण हेतु • आसानं भावयन्नाभिर्भावनाभिर्महामति । त्रुटितामपि सधत्ते, विशुद्धध्यानसन्ततिम् ।। योगशास्त्र ४।१२२ भावना-योग से विशुद्ध ध्यान का क्रम, जो विच्छिन्न होता है, वह पुन सध जाता है और वाछनीय सस्कारो का निर्माण होता है। । अवांछनीय संस्कारो के उन्मूलन के लिए • लोभ अलोभेण दुगछमाणे, लद्धे कामे नाभिगाहइ। आयारो २१३६ जो पुरुष लोभ को प्रतिपक्ष भावना-अलोभ से पराजित कर देता है वह प्राप्त कामो का सेवन नहीं करता। वह लोभ से मुक्त हो जाता है। स्वरूप द्रष्टा बारा प्रदत्त बोध अदक्खुव । दक्खुवाहिय, सद्दहसू अदक्खुदसणा। हदि हु सुविरुद्धदसणे, मोहणिजेण कडेण कम्मुगा ।। सूयगडो ११२१६५ हे अद्रष्टा ! तुम्हारा दर्शन तुम्हारे ही मोह के द्वारा निरुद्ध है। तुम सत्य को नहीं देख पा रहे हो। अत तुम उस पर श्रद्धा करो जो द्रष्टा द्वारा तुम्हे बताया जा रहा है। अनुप्रेक्षा का आधार द्रष्टा द्वारा प्रदत्त बोध है। अनुपेक्षा स्वाध्याय का एक प्रकार • वायणा पुच्छणा चेव, तहेव परियट्टणा। अणुप्पेहा धम्मकहा, सज्झाओ पचहा भवे।। उत्तरल्झयणाणि ३०३४ स्वाध्याय के पाच प्रकार है-वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा एव धर्मकथा।
SR No.034100
Book TitlePreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages41
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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