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________________ तब तुम यह देख पाने में समर्थ हो जाओगे कि तुम्हारी ज्ञानेंद्रियों का वास्तविक स्वरूप क्या है। यह दिव्य है। तुम्हारी देह अपने में दिव्य को समाए हुए हैं। यह परमात्मा है, जिसने तुम्हारी आंखों के माध्यम से देखा है। मुझे मास्टर इकहार्ट का एक प्रसिद्ध कथन याद आता है। जिस दिन वह जागा, और संबोधि को प्राप्त हुआ, , उसके मित्रों और शिष्यों और बंधुओं ने पूछा, आपने क्या देखा? वह हंसा । सारी ईसाइयत में वह ही एक मात्र ऐसा है जो झेन मास्टर के बहुत करीब है, करीब-करीब झेन मास्टर ही है। वह हंसा उसने कहा : मैंने उसको नहीं देखा, उसने स्वयं को मेरे माध्यम से देख लिया है। परमात्मा ने मेरे द्वारा अपने आप को देख लिया है। ये आंखें उसकी हैं। और क्या खेल है, क्या लीला है। उसने खुद को मेरे द्वारा देखा। जब तुम ज्ञानेंद्रियों के स्वरूप की वास्तविक अनुभूति करोगे तो तुम्हें अनुभव होगा कि वे दिव्य हैं। यह परमात्मा ही है जिसने तुम्हारे हाथ के द्वारा गति की है। यह परमात्मा का हाथ है। सारे हाथ उसी के हैं। यह परमात्मा ही है। जिसने तुम्हारे द्वारा प्रेम किया है, सारे प्रेम संबंध उसी के हैं। उसके अतिरिक्त और हो भी क्या सकता है? हिंदू इसे कोयल के रूप में जो तुम्हें बुला रहा है, वह वही है, और जो तुम्हारे यह वही और सिर्फ वही है जो हर स्थान पर व्याप्त है। लीला, परमात्मा का खेल कहते हैं। द्वारा सुन रहा है वह भी वही है। 'उनकी बोध की शक्ति, वास्तविक स्वरूप, अस्मिता, सर्वव्यापकता और क्रियाकलापों पर संयम साधने से ज्ञानेंद्रियों पर स्वामित्व उपलब्ध हो जाता है।' यह शब्द 'अस्मिता' समझ लेने जैसा है, क्योंकि हमारे पास संस्कृत में अहंकार के लिए तीन शब्द हैं और अंग्रेजी में केवल एक ही शब्द है। इससे कठिनाई उत्पन्न होती है। इस सूत्र में संस्कृत का शब्द है 'अस्मिता' अत पहले मैं तुम्हें इसे समझता हूँ। , ये तीन शब्द हैं : अहंकार, अस्मिता, आत्म। सभी का अर्थ है 'मैं'। अहंकार का अनुवाद ईगो के रूप में किया जा सकता है, यह बहुत स्थूल है, इसमें मैं पर अत्यधिक जोर है। अस्मिता के लिए अंग्रेजी में कोई शब्द नहीं है। अस्मिता का अर्थ है : हूं-पन, मैं हूं। अहंकार में जोर 'मैं पर है, अस्मिता में जोर 'हूं पर है। हूं—पन, अहंकार से अधिक शुद्ध है। फिर भी यह वहां है, किंतु एक बिलकुल ही अलग रूप में हूं-पन और 'आत्म, हूं-पन भी खो गया है। अहंकार में मैं है: अस्मिता केवल हूं और आत्म में यह भी मिट चुका है। आत्म में शुद्ध अस्तित्व है, न मैं और न हूं-पन का प्रयोग है। इस सूत्र में अस्मिता, हूं-पन का प्रयोग है। स्मरण रखो कि अहंकार मन का होता है, ज्ञानेंद्रियों में कोई अहंकार नहीं होता। उनमें एक निश्चित हूं-पन है, परंतु अहंकार नहीं होता। अहंकार मन का है। तुम्हारी आंखों के पास कोई अहंकार नहीं होता, तुम्हारे हाथों के पास कोई अहंकार नहीं है, उनके पास एक निश्चित हूं-पन है। यही कारण है कि अगर तुम्हारी त्वचा को बदलना पड़े और किसी अन्य की त्वचा प्रत्यारोपित कर दी जाए तो तुम्हारा शरीर उसे अस्वीकार कर देगा, क्योंकि शरीर को पता है कि
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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