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________________ लेकिन पिता अनुमति नहीं दे रहे थे, इसलिए उसने मुह बंद रखा। धीरे-धीरे वह ढोंगी, पाखंडी हो जाता है। और पाखंडी कभी प्रसन्न नहीं हो सकता, अपनी जीवन-ऊर्जा के प्रति सच्चा होना प्रसन्नता है। सच्चे होने के कृत्य का परिणाम है-प्रसन्नता। प्रसन्नता कहीं और नहीं है कि तुम जाओ और इसको खरीद लो। प्रसन्नता कहीं और तुम्हारी प्रतीक्षा नहीं कर रही है कि तुमको रास्ता खोजना पड़ेगा और उस तक पहुंचना पड़ेगा। नहीं, प्रसन्नता सच्चे, प्रमाणिक होने के कृत्य का फल है। तब कभी तुम सच्चे हो, तुम प्रसन्न हो। जब कभी तुम सच्चे नहीं हो, तुम अप्रसन्न हो। और मैं तुमसे नहीं कहूंगा कि यदि तुम सच्चे नहीं हो तुम अपने आगामी जीवन में अप्रसन्न होओगे। नहीं, यह सब बकवास है। यदि तुम सच्चे नहीं हो, तो ठीक इसी समय तुम अप्रसन्न हो। निरीक्षण करो-जब कभी भी तुम सच्चे नहीं होते हो, तुमको असहजता, अप्रसन्नता अनुभव होती है, क्योंकि ऊर्जा प्रवाहित नहीं हो रही है। ऊर्जा नदी जैसी नहीं है; यह अवरुद्ध, मृत, जमी हुई है। और तुम प्रवाहित होना पसंद करोगे। जीवन एक प्रवाह है; मृत्यु है जमी हुई अवस्था। अप्रसन्नता आती है क्योंकि तुम्हारे अनेक भाग जमे हुए हैं। उनको कभी कार्यरत नहीं होने दिया गया है और धीरे-धीरे तुमने उनको नियंत्रित करने की तरकीब सीख ली है। अब तुम यह भी भूल चुके हो कि तुम किसी चीज को नियंत्रित कर रहे हो। तुम शरीर में अपनी जड़ों को खो चुके हो। अपने शरीर के सत्य में स्थित अपनी जड़ों को खो चुके हो। लोग भूतों की भांति जी रहे हैं, यही कारण है कि वे पीड़ा में हैं। जब मैं तुम्ह भीतर झांकता हं तो मश्किल से ही मेरा किसी जीवित व्यक्ति से मिलना हो पाता है। लोग भतों की, प्रेतात्माओं की भांति हो गए हैं। तुम अपने शरीर में नहीं हो; तुम अपने सिर के चारों ओर एक भूत की तरह मंडरा रहे हो, जैसे सिर के चारों ओर कोई गब्बारा बंधा हआ हो। एक छोटा सा धागा तमको शरीर से जोड़े यह धागा तुमको जीवित रखता है, कुल इतना है मामला, लेकिन यह जीवन आनंदपूर्ण नहीं है। तुमको चेतन होना पड़ेगा, तुमको ध्यान करना पड़ेगा, और तुमको सभी नियंत्रण छोड़ देने पड़ेंगे, तुम्हें सीखे को अनसीखा, किए हुए को अनकिया करना पड़ेगा और फिर पहली बार तुम पुन: प्रवाहमान हो जाओगे। निःसंदेह, अनुशासन की आवश्यकता है, लेकिन नियंत्रण की भांति नहीं, बल्कि सजगता की भांति। नियंत्रित अनुशासन मुर्दा करने वाली घटना है। जब तुम सजग, बोधपूर्ण होते हो, तो उस सजगता से एक अनुशासन सरलता से आ जाता है-ऐसा नहीं है कि तुमने उसको थोप दिया है, ऐसा नहीं है कि तुमने इसकी योजना बनाई है। नहीं, पल-पल तुम्हारी सजगता यह निर्णय करती है कि किस भांति प्रतिसंवेदन किया जाए। और एक सजग व्यक्ति इस प्रकार से प्रतिसंवेदन करता है कि वह प्रसन्न बना रहता है, और वह दूसरों के लिए अप्रसन्नता निर्मित नहीं करता है।
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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