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________________ हजारवा मन, लेकिन फिर भी समस्ता वही बनी रहती है। फिर तुमको पुन: एक हजारवें मन के पीछे एक हजार एकवें मन की कल्पना करनी पड़ेगी-और यह आगे और आगे चलता चला जाएगा। नहीं, व्यक्ति को किसी ऐसी बात को समझना पड़ता है जो नितांत भीतर है जिससे परे कुछ भी नहीं है। वरना स्मृति ये। का संशय होगा, वरना उलझन होगी। शरीर, मन और साक्षी साक्षी परम है। लेकिन साक्षी का ज्ञान किसको होता है? साक्षी को कौन जानता है? और तब हम योग की सर्वाधिक महत्वपूर्ण परिकल्पनाओं में से एक पर आ जाते हैं। 'आत्म-बोध से अपनी स्वयं की प्रकृति का ज्ञान मिल जाता है, और जब चेतना इस रूप में आ जाती है तो यह एक स्थान से दूसरे स्थान को नहीं जाती।' योग का मानना है कि साक्षी एक स्व प्रकाशमान घटना है। यह बस प्रकाश की भांति है। तुम्हारे कमरे में एक छोटी सी मोमबत्ती है, यह मोमबत्ती पूरे कमरे को-फर्नीचर को, दीवारों को, दीवार पर लगी पेटिंग को, प्रकाशित कर देती है। मोमबत्ती को कौन प्रकाशित करता है? तुमको इस मोमबत्ती की खोज करने के लिए एक अन्य मोमबत्ती की आवश्यकता नहीं होती; यह मोमबत्ती स्वयं प्रकाशित हो रही है। यह दूसरी वस्तुओं को प्रकाशित करती है और साथ ही साथ यह अपने आप को भी प्रकाशित करती है। स्वबुद्धिसवेदनम-अंतर्तम चेतना स्व प्रकाशित है। यह प्रकाश की प्रकृति है। सूर्य सौरमंडल की प्रत्येक वस्तु को प्रकाशित करता है और साथ ही साथ यह अपने आप को भी प्रकाशित करता है। साक्षी उस प्रत्येक बात का साक्षी है जो इन पांच बीजों और इस संसार में उसके चारों ओर चल रही है, ठीक उसी समय यह अपने आप को भी प्रकाशित करता है। यह पूर्णत: तर्कयुक्त लगता है। कहीं न हमें सागर में उतरते चले जाएं तो चटटानी तलहटी पर आना पडता है। वरना हम और और आगे बढ़ते चले जाएंगे और इससे सहायता नहीं मिलेगी, और समस्या वैसी ही बनी रहती है। 'आत्म-बोध से अपनी स्वयं की प्रकृति का ज्ञान मिल जाता है, और जब चेतना इस रूप में आ जाती है तो यह एक स्थान से दूसरे स्थान को नहीं जाती।' जब तुम्हारी आंतरिक चेतना अ-गति के क्षण में आ चुकी है, जब यह गहनता से केंद्रित हो चुकी है और दृढ़ता से स्थापित हो चुकी है, जब यह कंपित नहीं हो रही है, जब यह सजगता की अनवरत अग्निशिखा बन चुकी है, तब यह अपने आप को प्रकाशित करती है। 'जब मन ज्ञाता और ज्ञेय के रंग में रंग जाता है तब यह सर्वज्ञ हो जाता है।' मन तुम्हारे और संसार के ठीक मध्य में है। तुम्हारे और संसार के मध्य में, साक्षी और साक्षित्व के विषय के मध्य में, मन सेतु है। मन एक सेतु है। और मन यदि वस्तुओं के रंग में रंग जाता है, और साक्षी के दवारा भी रंग जाता है, तब यह सर्वज्ञ हो जाता है। यह ज्ञान का प्रचंड उपकरण बन जा है। लेकिन दो प्रकार से रंगे जाने की आवश्यकता है। एक, इसको उन वस्तुओं के द्वारा रंगा जाना
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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