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________________ से चैतन्य नहीं बना सकते क्योंकि दसरे की आवश्यकता पडेगी, और तम्हारे अस्तित्व पर उसकी एक छाया पड़ जाएगी। ध्यान तुमको पूरी तरह से चैतन्य बना देता है-किसी छाया के बिना-बिना अंधकार के परिपूर्ण प्रकाश। अब सुझाव भी एक स्थूल चीज समझा जाता है। कोई सुझाव देता हैइसका अर्थ है कि कोई चीज बाहर से आती है, और जो कुछ भी बाहर से आता है, विश्लेषण की परम सूक्ष्मता में वह भौतिक है। केवल पदार्थ ही नहीं बल्कि वह सभी जो बाहर से आता है भौतिक है। एक विचार तक पदार्थ का सूक्ष्म रूप है। सम्मोहन चिकित्सा भी भौतिकवादी है। ध्यान सारी संभावनाएं, सभी सहारे गिरा देता है। यही कारण है कि ध्यान को समझ पाना संसार का सर्वाधिक कठिन कार्य है, क्योंकि बचता कुछ भी नहीं है-बस एक शुद्ध समझ, एक साक्षीभाव। पहला सूत्र यही कह रहा है। 'मन की वृत्तियों का ज्ञान सदैव इसके प्रभु.......' तुम्हारे भीतर प्रभु कौन है? उस प्रभु को खोजना पड़ता है। 'मन की वृत्तियों का ज्ञान सदैव इसके प्रभु, पुरुष, को शुद्ध चेतना के सातत्य के कारण होता है।' तुम्हारे भीतर दो बातें घट रही हैं। पहली है विचारों, भावनाओं, इच्छाओं का झंझावात-तुम्हारे चारों ओर विराट भंवर है, सतत परिवर्तनशील, अपने आप को लगातार परिवर्तित करता हुआ, लगातार गतिशील। यह एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के पीछे तुम्हारी साक्षी आत्मा है-शाश्वत, स्थायी, जरा भी न बदली हुई। यह कभी नहीं बदली है। यह शाश्वत आकाश जैसी है मेघ आते हैं और चले जाते हैं, एकत्रित होते हैं, बिखर जाते हैं... आकाश अस्पर्शित, अप्रभावित बिना किसी छाप के मौजूद रहता है। यह शुद्ध और कुंवारा बना रहता है। तुम्हारे भीतर शाश्वत, प्रभु यही है। मन बदलता रहता है। अभी एक क्षण पूर्व तुम्हारे पास एक मन था, एक क्षण बाद तुम्हारे पास दूसरा मन होता है। अभी कुछ मिनट पहले तुम क्रोधित थे, और अब तुम हंस रहे हो। अभी कुछ मिनट पहले तुम प्रसन्न थे, अब तुम उदास हो। मनोवृत्तियां, परिवर्तन, लगातार ऊपर और नीचे तरंगित होते रहते हैं, जैसे कि यो-यो का खेल चलता रहता है। लेकिन तुम्हारे भीतर कुछ शाश्वत है : वह जो इस खेल को, तमाशे को देखता रहता है। वही साक्षी, प्रभु है। यदि तुम साक्षी होना आरंभ कर देते हो, तो तुम धीरे-धीरे प्रभु से निकटतर और निकटतर हो जाओगे। वस्तुओं का साक्षी होना आरंभ करो। तुम एक वृक्ष को देखते हो, तुम वृक्ष को देखते हो लेकिन तुम इसके प्रति सजग नहीं हो कि तुम इसको देख रहे हो, तब तुम साक्षी नहीं हो। तुम एक वृक्ष को देखते हो, और उसी समय तुम देखते हो कि तुम देख रहे हो, तब तुम साक्षी हो। चेतना को दो नोकों वाला तीर बनना पड़ता है : एक तीर वृक्ष की ओर जा रहा है, दूसरा तुम्हारे कर्तापन की ओर जा रहा है।
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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