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________________ को जानने का यही एक मात्र उपाय है। यदि तुम फूल के द्वारा नहीं रंगे गए होते तो फूल वहां होता लेकिन तुमने उसको नहीं जाना होता। क्या कभी तुमने गौर किया है? -तुम बाजार में हो और कोई कहता है, तुम्हारे घर में आग लग गई है। तुम दौड़ना आरंभ कर देते हो, तुम्हारे पास से होकर अनेक लोग गुजरते हैं। कोई व्यक्ति कहता है, अरे, आप कहां दौड़े जा रहे हैं? किंतु तुम नहीं सुनते। किसी और दिन, किसी और समय पर तुमने सुन लिया होता, किंतु इस समय तुम्हारे घर में आग लगी हुई है, तुम्हारा मन पूरी तरह से तुम्हारे घर की ओर लगा हुआ है, इस वक्त तुम्हारा अवधान यहां नहीं है। तुम यहां घटने वाली घटनाओं से अभिरंजित नहीं हो रहे हो। तुम एक सुंदर फूल के निकट से होकर गुजरते हो लेकिन इस समय तुम नहीं कहोगे सुंदर, तुम तो यह पहचान भी न सकोगे कि वहां कोई फूल भी है-असंभव। मैंने एक व्यक्ति, एक बहुत बड़े दर्शनशास्त्री के बारे में सुना है, उनका नाम ईश्वर चंद्र विद्यासागर था। उनकी सेवाओं, उनकी विद्वत्ता, उनके ज्ञान के लिए भारत का गर्वनर जनरल उनको एक पुरस्कार देने जा रहा था। वे कलकता में रहने वाले एक निर्धन बंगाली थे, और उनके वस्त्र ऐसे नहीं थे कि वे उन वस्त्रों को पहन कर उस समय जाएं जब वह पुरस्कार उनको दिया जा रहा हो। इसलिए उनके मित्र उनके पास आए और उन्होंने कहा, आप चिंता न करें, हम लोगों ने आपके लिए सुंदर वस्त्रों की व्यवस्था कर दी है। लेकिन वे विदयासागर बोले, मैंने कभी इन वस्त्रों से अधिक कीमती वस्त्र नहीं पहने। बस एक पुरस्कार लेने के लिए क्या मैं अपने जीवन का सारा ढंग बदल लूं? किंतु मित्रों ने उनको समझा लिया और वे तैयार हो गए। उसी शाम जब वे बाजार से घर लौट रहे थे, बस एक मुस्लिम सज्जन के पीछे चलते हुए आ रहे थे, जो बहुत शानदार ढंग से चल रहे थे-बहुत धीरे, प्रसादपूर्ण ढंग से-एक बहुत सुंदर व्यक्ति थे वे, और तभी एक नौकर उन मुस्लिम सज्जन के पास भागता हुआ आया और बोला, हुजूर, आपके घर में आग लग गई है, लेकिन उन मुस्लिम सज्जन ने उसी प्रकार चलना जारी रखा। नौकर ने कहा. आपने मेरी बात सुन ली या नहीं? आपके घर में आग लग गई है, हर चीज जल रही है! उन मुस्लिम सज्जन ने कहा : मैंने तुम्हारी बात सुन ली है, लेकिन बस, क्योंकि घर में आग लग गई है इसलिए मैं अपने चलने का ढंग नहीं बदल सकता। और यदि मैं दौड़ पडूं तो भी मकान को मैं नहीं बचा सकता, इसलिए चाल बदलने से भी क्या हो जाएगा? ईश्वरचंद्र ने नौकर और मालिक के मध्य होने वाला यह वार्तालाप सुन लिया। उनको अपनी आंखों पर भरोसा न हआ, वे अपने कानों पर विश्वास न कर सके कि ये सज्जन क्या कह रहे हैं? और फिर उनको स्मरण हो आया, मैं तो बस अपने वस्त्र बदलने ही वाला था, मात्र एक पुरस्कार प्राप्त करने की खातिर, मैं तो उधार मांगे हुए वस्त्र पहन कर जाने वाला था? उन्होने यह विचार त्याग दिया। अगले दिन वे अपने उन्हीं सामान्य वस्त्रों में पहुंच गए। गर्वनर जनरल ने पूछा, मित्रों ने पूछा, तब उन्होंने यह कहानी सुना दी।
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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