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________________ योग कहता है : नैतिकता प्रभावों से संघर्ष करती चली जाती है। 'तुम लोभी हो; तुम निर्लोभी होने का प्रयास करते हो, लेकिन क्या होता है? तुम निर्लोभी केवल तभी हो सकते हो जब तुम्हारे लोभ को निर्लोभ की ओर मोड़ दिया जाए। यदि कोई कहता है कि यदि तुम निर्लोभी हो जाओ तो तुम स्वर्ग चले जाओगे, और यदि तुम लोभी बने रहे तो तुम नरक में जाओगे, अब वह क्या कर रहा है? वह तुम्हारे लोभ के लिए एक नया विषय दे रहा है। वह कह रहा है, निर्लोभी हो जाओ और तुम स्वर्ग उपलब्ध कर लोगे और वहां पर तुम सदा और सदैव के लिए खुश रहोगे। अब लोभी व्यक्ति यह सोचने लगेगा कि निर्लोभ का अभ्यास कैसे किया जाए जिससे वह स्व सके। तुम भयभीत हो; भय वहां है। भय से कैसे मुक्त हुआ जाए? तुमको और अधिक भयभीत बनाया जा सकता है, और भय के बारे में तुम्हारे भीतर इतना भय निर्मित किया जा सकता है कि तुम इसको दमित करना आरंभ कर दो। यह तुमको निर्भय बनाने नहीं जा रहा है, तुम बस और अधिक भयभीत हो जाओगे। एक नया भय उठ खड़ा होगा, भय का भय। तुम क्रोधित होते हो। तुम्हारे लिए क्रोधित होना सरल है, और मन की इस वृत्ति का प्रतिरोध करना भी बहुत कठिन है। अब कुछ किया जा सकता है। तुम क्रोधित क्यों होते हो? जब कभी तुम्हारा अहंकार आहत होता है तुम क्रोधित हो जाते हो। अब तुमको यह सिखाया जा सकता है कि वह व्यक्ति जो नियंत्रण में रहता है, समाज में सम्मान पाता। वह व्यक्ति अपना क्रोध इतनी आसानी से प्रदर्शित नहीं करता उसे महान व्यक्ति समझा जाता है। तब तुम्हारा अहंकार बढ़ाया जा रहा है; अधिक अनुशासित और नियंत्रित हो जाओ, और इतनी जल्दी क्रोधित होने के लिए व्याकुल मत हो जाओ। तुम्हारा अहंकार नष्ट नहीं होता, बल्कि यह और ताकतवर हो जाता है। रोग अपना रूप, नाम बदल सकता है लेकिन रोग रहेगा। इसे स्मरण रखो, योग नैतिकता की कोई व्यवस्था नहीं है क्योंकि यह प्रभावों की चिंता जरा भी नहीं लेता है। यही कारण है कि दस आज्ञाओं जैसी कोई बात यहां योग-सूत्र में नहीं लोग मूलभूत कारण को जाने बिना एक-दूसरे को सिखाए चले जाते है, और जब तक मूलभूत कारण को न जान लिया जाए कुछ भी नहीं किया जा सकता है, मनुष्य का व्यक्तित्व वही रहता है, यहांवहां शायद थोड़ी सी लीपा-पोती, यहां-वहां थोड़ी सी बदलाहट। मैंने सुना है, एक पोलिश व्यक्ति आंखों की जांच करवाने के लिए नेत्र चिकित्सालय में गया। जांच के लिए चिकित्सक ने उसे सामने दिख रहे चार्ट की पंक्तियों को एक-एक करके पढ़ने को कहा। उसने नीचे वाली पंक्ति को देखा. सी एस वी ई एन सी जे डब्लू वह थोड़ा सा हिचकिचाया। डाक्टर ने उससे कहा : तुम चिंतित क्यों लग रहे हो। यदि तुम इनको नहीं पढ़ पा रहे हो तो अपनी ओर से भरपूर
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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