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________________ आकाश है। एक विचार गुजरता है, दूसरा विचार गुजरता है, दोनों के मध्य मौलिक मन है। यदि तुम सोचते हो कि तुम्हारे विचार सातत्य में हैं, तो तुम स्वयं को मन के रूप में सोचते हो। वास्तव में मन जैसी कोई चीज नहीं है, केवल विचार है, विच्छिन्न विचार, तुम्हारे भीतर घूमते हुए, इतनी तेज भागते हुए कि तुम अंतरालों को देख नहीं पाते। इन विचारों को तुम्हारे अंतर-आकाश ने धारण किया हुआ है। परमाणुओं को बाह्मआकाश सम्हालता है, विचारों को अंतर-आकाश द्वारा सम्हाला जाता है। यदि तुम पदार्थ का हिसाब लगाते हो तो तुम पदार्थवादी हो जाते हो, यदि तुम अपने विचारों का हिसाब लगाते हो तो तुम मनवादी हो जाते हो। लेकिन मन और पदार्थ दोनों भ्रम हैं। वे प्रक्रियाएं हैं, विच्छिन्न हैं। और मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि योग का परम संश्लेषण यही है कि अंतर-आकाश और बाह्य-आकाश दो नहीं हैं। तुम्हारा मौलिक मन और परमात्मा का मौलिक मन दो नहीं हैं। तुम्हारा कृत्रिम मन परमात्मा के मन से भिन्न है, लेकिन तुम्हारा मौलिक जरा भी भिन्न नहीं है। यह वही है। 'जब उनकी पूर्णता के लिए परिस्थितियां सहायक होती हैं, तो इन त्रि-आयामी कर्मों से इच्छाएं उठती हैं।' यदि तुम शुद्धकर्म, कोई शुभकार्य, कोई साधु जैसा कृत्य करते हो तो इच्छा का जन्म होगा, निःसंदेह और शुभ करने की इच्छा। यदि तुम कोई अशुद्ध कर्म करते हो, तो और अशुद्ध कर्म करने की इच्छा जाग्रत होगी, क्योंकि जो कुछ भी तुम करते हो, वह तुम्हारे भीतर इसको दोहराने की एक खास आदत निर्मित करता है। लोग दोहराए चले जाते हैं। जो कुछ भी तुम कर चुके हो, तुम इसको करने में कुशल - हो। यदि तम कोई मिश्रित कत्य करते हो, तो निःसंदेह एक मिश्रित इच्छा उपजेगी जिसमें शुभ और अशुभ दोनों मिले हुए होंगे। लेकिन ये सभी कृत्रिम मन हैं। एक महात्मा का मन तक, अब भी कृत्रिम मन है। मैने सुना है, एबी कोहेन, एक बड़ा व्यवसायी, जो यहूदी था, एक हत्या के मामले में राज्य न्यायालय में दोषी पाया गया। उसकी सजा वाले दिन की सुबह कारागार अधीक्षक उससे मिलने आया। मिस्टर कोहेन, उसने कहा, तुम्हें फांसी पर लटकाने में देश को सौ पाउंड खर्च करना पड़ेंगे। बुरा व्यवसाय रहेगा यह, दवी ने कहा, मुझको केवल पिचानवे पाउंड दे दो और मैं खुद को गोली मार लूंगा। एक व्यवसायी व्यवसायी रहता है। वह व्यापार के बारे में, धन के बारे में सोचता रहता है। वह इसके बारे में कुशल हो गया है। जरा देखो, जो कुछ तुम करते रहे हों-तुम्हारे भीतर, बेहोशी में, अवचेतन में इसे दोहराने की प्रवृत्ति होती है। तुम वे ही चीजें बार-बार दोहराए चले जाते हो, और निःसंदेह जितना अधिक तुम दोहराते हो उतना ही अधिक तुम आदत की पकड़ में आ जाते हो। एक समय ऐसा आता है कि तुम आदत को छोड़ना भी चाहो तो आदत इतनी गहराई तक जड़ें जमा चुकी होती है कि तुम इसे छोड़ना चाहते हो, लेकिन यह तम्हें छोड़ना नहीं चाहती।
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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