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________________ जात्यन्तर परिणाम: प्रकृत्यापूरात्।। 2।। एक वर्ग, प्रजाति, या वर्ण से अन्य में रूपातरण, प्राकृतिक प्रवृत्तियों या क्षमताओं के अतिरेक से होता है। निमित्तम प्रयोजकं प्रकृतीनां वरणभेदस्तु तत: क्षेत्रिकवत्।। 3 ।। आकस्मिक कारक प्राकृतिक प्रवृतियों को सक्रिय होने के लिए प्रेरित नहीं करता, यह तो बस अवरोधों को हटा देता है-जैसे खेत सींचता हआ किसान; वह बाधाओं को हटा देता है और तब पानी स्वत: ही मुक्त होकर प्रवाहित होने लगता है। निर्माणचित्तान्यस्मितामात्रात्।। 411 कृत्रिमता से निर्मित मन केवल अस्मिता से ही अग्रसर होते है। प्रवृतिभेदे प्रयोजकं चित्तमेकमनेकेषाम।। 5// कृत्रिम मानों की गतिविधियां भिन्न-भिन्न होती है। फिर भी एक मूल मन उन सभी का नियंत्रण करता है। गभग विक्षिप्त है-विक्षिप्त इसलिए कि वह कुछ ऐसा खोज रहा है जो उसके पास पहले से ही है; विक्षिप्त है क्योंकि उसे नहीं पता कि वह कौन है, विक्षिप्त है क्योंकि वह आशा करता है, अभिलाषा रखता है और अंत में निराशा अनुभव करता है। निराश तो होना ही है, क्योंकि खोज कर तुम स्वयं को नहीं पा सकते; तुम पहले से ही वहां हो। खोज को बंद करना पड़ेगा, तलाश छोड़नी पड़ेगी; यही वह सबसे बड़ी समस्या है, जिसका सामना करना है, जिससे संघर्ष करना है। समस्या यह है कि तुम्हारे पास कुछ है और तुम उसी को खोज रहे हो। अब वह तुम्हें कैसे मिल सकता है? तुम खोजने में अति व्यस्त हो और तुम उस चीज को नहीं देख पाते जो पहले से ही तुम्हारे पास है। जब तक कि सारी खोज बंद नहीं हो जाती, उसको तुम देख न पाओगे। खोज तुम्हारे मन को कहीं भविष्य में केंद्रित कर देती है, और वह वस्तु जिसको तुम खोज रहे हो पहले से ही यहीं,
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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