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________________ क्योंकि मन उसे पकड़ना चाहता है। इसलिए हर बात पक्की हो, सुनिश्चित हो। और सही मार्ग हो, तो तुम कहोगे, 'अब ठीक है। अब मैं अपनी आंखों पर पट्टी बाध सकता हूं। अब कहीं जाने की कोई जरूरत नहीं।' कहीं जाने की जरूरत है भी नहीं। लेकिन इसलिए नहीं कि तुम्हें मुझे पकड़े रहना है। कहीं जाने की जरूरत इसलिए नहीं है, क्योंकि तुम पहले से ही वहां हो जहां कि तुम जाना चाहते हो। मुझे तो तुम स्वयं को जान सकी इसमें मदद करनी है। यह बहुत ही नाजुक और सूक्ष्म बात है, क्योंकि जो मैं कहता हूं अगर वह तुम्हें अच्छी लगती है, तो इस बात की अधिक संभावना है कि तुम उससे भी फिलोसफी, उससे भी सिद्धांत निर्मित कर लो। जो कुछ मैं कहता हूं अगर वह तुम्हें आश्वस्त करता है-जैसा कि प्रश्नकर्ता कह रहा है कि ''मैं पक्के तौर पर आश्वस्त हो गया हूं ... तो मैं तुम्हारे साथ किसी वाद-विवाद में नहीं पड़ रहा हूं, और मैं तुम्हें कोई तर्क भी नहीं दे रहा हूं। मैं तो पूरी तरह से तर्कातीत और असंगत हूं। मेरा तो सारा प्रयास यही है कि तुम्हारे मन से सारे तर्क गिरा दूं; ताकि तुम शब्दों, सिद्धांतों, मतों, धर्मशास्त्रों से अलगनिर्विकार, शुद्ध, निर्दोष, दूषित बच जाओ। जिससे तुम अपनी चेतना की शुद्ध निर्मल गुणवत्ता को उपलब्ध कर सको। तुम्हारे भीतर केवल एक शून्य, विराट आकाश शेष रह जाए। मेरा संपूर्ण प्रयास यहां पर यही है कि तुम्हें लक्ष्य दे दूं र मार्ग न दूं। मेरा प्रयास तुम्हें समग्र को, संपूर्ण को दे देने का है। मैं तुम्हें साधन-मार्ग इत्यादि नहीं दूंगा। मैं तुम्हें साध्य, परम साध्य देना चाहता हूं। वर्तमान के क्षण में मन हिचकिचाहट अनुभव करता है। मन साधनों को, मार्गों को जानना चाहता है, ताकि अंतिम साध्य तक पहुंचा जा सके। मन विधि चाहता है। मन मार्ग चाहता है। मन पहले आश्वस्त होना चाहता है और फिर रूपांतरित होना चाहता है। मैं मन की इस धारणा को मिटा देना चाहता है, उसे किसी तरह का भरोसा या आश्वासन नहीं देना चाहता। इसलिए अगर तुम सच में मेरे ऊपर श्रद्धा रखते हो, मेरे ऊपर भरोसा करते हो. तो मन को गिरा देना। अगर तुमने मुझे देखा और सुना है, और तुम मुझसे प्रेम करते हो, तो मेरे साथ किसी तरह की विचारधारा और सिद्धांत को मत जोड़ना। इसे शुद्ध, निर्विकार प्रेम ही रहने देना, जिसमें कोई विचार, कोई सिद्धांत न जुड़ा हो। तुम मुझसे प्रेम करो, मैं तुम्हें प्रेम करूं, इसमें कोई कारण निहित नहीं होना चाहिए। यह प्रेम बेशर्त होना चाहिए, इसमें कोई शर्त नहीं होनी चाहिए। अगर तुम इस कारण से मेरे प्रेम में पड़े हो कि मैं जो कहता हूं वह तुम्हें सत्य मालूम पड़ता है, तो यह प्रेम बहुत समय तक टिकने वाला नहीं है; और अगर यह टिक भी गया, तो यह वह प्रेम न होगा जो कि परमात्मा का होता है। तब यह प्रेम मन की धारणा और तर्क की तरह ही होगा। और उस ढंग से मैं खतरनाक आदमी हूं, क्योंकि आज जो मैं कहूंगा तुम उसके प्रति आश्वस्त हो जाओगे, और कल मैं ठीक उसके विपरीत कहूंगा-और तब तुम क्या क्या करोगे? तब तुम उलझन और परेशानी में पड़ जाओगे।
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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