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________________ इसी आकाश का जिसका कोई आकार नहीं है, जो चारों ओर से घेरे हुए है, और जो कान से संबंध है उस पर संयम पा लेने से योग की खोज है यह कि कान की समस्वरता आकाश से सधी हुई है, इसीलिए व्यक्ति को ध्वनियां सुनाई देती हैं। ध्वनियां आकाश में, ईथर में निर्मित होती हैं और देह के भीतर जो कान है, वह आकाश से जुड़ा होता है। आंखें सूर्य से जुड़ी हुई हैं, कान आकाश से ईथर से जुड़े हुए हैं। अगर व्यक्ति अपनी समाधि को आकाश और कान से जोड़ ले, तो जो कुछ भी वह सुनना चाहता है, वह सब सुनने के योग्य हो जाएगा। ऊपर से देखने पर यह चमत्कार लग सकता है, लेकिन फिर भी इसमें कोई चमत्कार नहीं है। इसके पीछे वैसे ही वैज्ञानिक नियम है जैसे कि टेलीविजन और रेडियो के पीछे हैं बस एक तरह की समस्वरता की आवश्यकता होती है। अगर कान आकाश के साथ एक विशेष समस्वरता को पा लेते हैं, तो व्यक्ति वह सुनने लगता है, जो सामान्यतया नहीं सुना जा सकता। तब दूसरे के विचारों को भी सुना जा सकता है। केवल इतना ही नहीं, उन विचारों को भी सुना जा सकता है जो कि हजारों साल पहले कहे और बोले गए थे। बुद्ध को फिर से सुना जा सकता है। फिर से कृष्ण अर्जुन संवाद सुना जा सकता है। जीसस को सर्मन आन माऊंट देते हुए फिर से सुना जा सकता है क्योंकि जो कुछ भी इस अस्तित्व में कहा गया है, या बोला गया है, वह सब आकाश में रहता है। वह कभी भी इस अस्तित्व से बाहर नहीं जाता, वह कभी मिटता नहीं है; बहुत ही सूक्ष्म रूप से वह हमेशा विद्यमान रहता है। थियोसोफी में वे इसे आकाशी रिकार्ड कहते हैं। हर चीज आकाश के रिकार्ड में टेप है, बस एक बार उसकी कुंजी को खोज लो और वह कुंजी कान और आकाश के बीच के संबंध पर संयम ले आने से उपलब्ध हो जाती है। "शरीर और आकाश के संबंध पर संयम ले आने से और साथ ही भार- विहीन चीज जैसे रुई आदि से अपना तादात्म्य बना लेने से योगी आकाशगामी हो सकता है।' और अगर व्यक्ति शरीर और आकाश के संबंध पर संयम ले आता है ...... आकाश का कोई आकार नहीं है, आकाश आकार विहीन है, निराकार है। आकाश हमको चारों ओर से घेरे हु है, लेकिन उसकी कोई सीमा नहीं है आकाश के सागर में हमारा शरीर एक लहर है। जन्म से पहले वह अप्रकट रूप से आकाश में था, और मृत्यु के पश्चात वह फिर आकाश ' विलीन हो जाएगा। अभी भी लहर आकाश से जुड़ी है; वह उससे अलग नहीं है। बस, अपनी को उस लहर पर और संबंध पर केंद्रित करो जो संबंध लहर और सागर का है, और तब व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुरूप प्रकट या विलीन हो सकता है।
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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