SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 407
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऐसा कैसे संभव होता है? हम तादात्म्य कैसे स्थापित कर लेते हैं? योग की भाषा में सत्य के, परम सत्य के तीन सहज गुणधर्म हैं सत् चित् की गुणवत्ता, अपरिवर्तनीय होने की गुणवता गतिशीलता, प्रक्रिया। और आनंद आनंद है परम सुख । आनंद- सच्चिदानंद सत् का अर्थ है अस्तित्व - शाश्वत चित् चित् का अर्थ है चैतन्य जागरूकता - चित है ऊर्जा, — यह तीनों परम सत्य के तीन गुण धर्म कहलाते हैं। यह योग की ट्रिनिटी है, निस्संदेह यह ईसाइयत की ट्रिनिटी से अधिक वैज्ञानिक है, क्योंकि यह परमात्मा, होली घोस्ट और पुत्र के विषय में कोई बात नहीं करती। योग अनुभवों की बात करता है। जब कोई व्यक्ति स्वयं के परम शिखर को उपलब्ध हो जाता है, तो उसे तीन बातों का बोध हो जाता है एक तो यह कि वह है और वह सदा रहेगा, यह है सत, दूसरा बोध कि वह चैतन्य है वह किसी मृत पदार्थ की भांति नहीं है वह है और वह जानता है कि वह है, यह है चित्? और जो इसे जानता है- वह है आनंद । अब मैं इनकी व्याख्या करता हूँ। इसे आनंदपूर्ण कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि तब यह एक अनुभव हो जाता है। इसलिए इसे ऐसा कहना अधिक उचित होगा कि व्यक्ति स्वयं ही आनंद है न कि आनंदपूर्ण है।' व्यक्ति ही सत है, व्यक्ति चित् है, व्यक्ति ही आनंद है, व्यक्ति का ही अस्तित्व है, व्यक्ति ही चैतन्य है, व्यक्ति ही आनंद है। सत्य का आत्यांतिक अनुभव यही है। पतंजलि कहते हैं कि जब यह तीनों उपस्थित होते हैं, तो प्रकृति में तीन गुणवताएं उत्पन्न कर देते हैं। वे केटेलेटिक एजेंट की तरह कार्य करते हैं; वे करते कुछ नहीं हैं। उनकी उपस्थिति मात्र ही प्रकृति में अदभुत क्रियाशीलता निर्मित कर देती है। यह क्रियाशीलता, सत्व, रजस, तमस, इन तीन गुणों से जुड़ी होती है। सत्व का संबंध आनंद से है, आनंद की गुणवत्ता से सत्व का अर्थ है, विशुद्ध प्रज्ञा । जितने अधिक व्यक्ति सत्य के निकट आता है, उतना ही अधिक वह आनंदित अनुभव करता है। सत्य आनंद का प्रतिबिंब है। अगर तुम अपने भीतर त्रिकोण की कल्पना कर सको तो आधार में तो होता है आनंद, और अन्य दो रेखाएं होती हैं सत् की और चित् की। यह पदार्थ के जगत में, प्रकृति में प्रतिबिंब होता है। निस्संदेह, प्रतिबिंबित होकर वह उलटा हो जाता है; सत्व और राजस-तमस वही त्रिकोण | ," तो परम सत्य कुछ न करना है - पतंजलि का सारा का सारा जोर इसी पर है। क्योंकि जब परम सत्य कुछ करता है, तो वह कर्ता हो जाता है और वह संसार में सरक जाता है। पतंजलि के योग में परमात्मा स्रष्टा नहीं है, वह तो केवल केटेलेटिक एजेंट मात्र है। यह बात बहुत ही वैज्ञानिक है क्योंकि अगर परमात्मा स्रष्टा है तो फिर इस बात का कारण खोजना होगा कि परमात्मा सृजन क्यों करता है? फिर उसमें सृजन की आकांक्षा खोजनी होगी, कि आखिर यह सृजन करता क्यों है? तब तो की तरह ही साधारण हो जाएगा। मनुष्य परमात्मा -
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy