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________________ दूसरे सभी देवताओं ने शिव को अभिशाप दे दिया था, लेकिन मेरे देखे वह अभिशाप वरदान बन गया, क्योंकि प्रतीक तो सच में ही बड़ा सुंदर है। वह संसार भर में एकमात्र ऐसा प्रतीक है, जिसकी बिना किसी निंदा भाव के ईश्वर की तरह पूज्या? की जाती है। हिंदू तो भूल ही गए हैं कि वह लिंग का प्रतीक है, हिंदू तो भूल ही गए हैं कि वह लिंग है। उन्होंने उसे पूरी तरह से स्वीकार कर लिया है। और यह प्रतीक बहुत ही सुंदर है, क्योंकि वहा केवल शिव ही नहीं है, वहां स्त्री की योनि भी है-यिन भी है वहां। लिंग योनि में समाहित है, दोनों मिल रहे है। यह प्रतीक मिलन का प्रतीक है, ऊर्जाओं के एक होने का प्रतीक है। ऐसा ही हमारे भीतर भी घटित होता है, लेकिन यह केवल तभी घटित होता है जब मन पूरी तरह से गिर जाता है। प्रेम केवल तभी संभव है जब मन बीच में से हट जाए। लेकिन अगर मन बीच में से हट जाए, तो केवल प्रेम ही नहीं बल्कि परमात्मा भी संभव है, क्योंकि प्रेम ही परमात्मा है। अगर सूर्य और चंद्र के बीच कोई आंतरिक द्वंद्व बना रहता है तो व्यक्ति की रुचि हमेशा बाहर की स्त्री में बनी रहेगी। अगर तुम पुरुष हो, तो तुम्हारा आकर्षण बाहर की स्त्री में बना ही रहेगा। तुम बाहर की स्त्री से आकर्षित होते ही रहोगे। अगर तुम स्त्री हो, तो तुम बाहर के पुरुष से आकर्षित होते रहोगे। जब भीतर का द्वंद्व शांत हो जाता है, और सूर्य – ऊर्जा चंद्र- ऊर्जा में प्रवाहित होने लगती है और भीतर कहीं कोई द्वंद्व, कोई छोटी सी दरार, कोई लकीर भी नहीं रह जाती है; तो उन दोनों ऊर्जाओं के बीच सेतु निर्मित हो जाता है तब तुम बाहर की स्त्री या बाहर के के प्रति आकर्षित न हो सकोगे। पहली बार तुम काम के प्रति सेक्स के प्रति संतुष्ट हो सकोगे। पुरुष मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तब तुम बाहर की स्त्री का त्याग ही कर दोगे इसकी कोई आवश्यकता भी नहीं है। या तुम बाहर के पुरुष का त्याग ही कर दोगे। नहीं, इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन अब पूरा का पूरा संबंध ही बदल जाएगा- अब उसमें एक समस्वरता और तालमेल होगा। अब वह संबंध शारीरिक पूर्ति का न रह जाएगा, बल्कि अब वह संबंध बांटने का एक दूसरे के साथ सहभागी होने का होगा। अभी तो जब पुरुष स्त्री से प्रेम का निवेदन करता है तो वह उसकी शारीरिक आवश्यकता ही होती है वह स्त्री का उपयोग किसी साधन की भांति करना चाहती है। स्त्री पुरुष का उपयोग साधन की भांति करना चाहती है। इसीलिए तो सभी स्त्रियां और सभी पुरुष सतत संघर्ष में, सतत कलह में जी रहे हैं और अगर इस बात की गहराई में जाकर देखा जाए तो वे अपने भीतर ही संघर्षरत हैं। भीतर का संघर्ष ही बाहर प्रतिबिंबित होता है। और जब तुम स्त्री का उपयोग कर रहे होते हो, तो कैसे तुम सोच सकते हो कि वह स्त्री तुम्हारे साथ आराम से, सुख-चैन - शांति से और सहजता से रह सकती है? कैसे उसकी हृदय की धड़कन तुम्हारी धड़कन के साथ एक हो सकती है? स्त्री को लगता है वह तो भोग का साधन मात्र है और फिर चाहे पुरुष हो या स्त्री, कोई भी साधन नहीं बनना चाहता है। स्त्री को लगता है कि उसका उपयोग किसी
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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