SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 327
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संभावना के बारे में बता रहा हूं। मेरा ऐसा कहना तो केवल तुम्हारी क्षमता को, तुम्हारी संभावना को दर्शाता है। और कभी तुमने खयाल किया। अगर तुम एक संगीतकार हो और तुम्हारे बेटे में संगीतकार बनने की कोई संभावना नहीं है, उसकी ऐसी प्रवृत्ति ही नहीं है, उसकी ऐसी इच्छा ही नहीं है, उसमें ऐसी प्रतिभा ही नहीं है, तो तुम उससे किसी प्रकार की आशा नहीं कर सकोगे। वही बेटा किसी ऐसे बाप के लिए आशापूर्ण हो सकता है जो गणितज्ञ हो, लेकिन तुम्हारे लिए वह आशापूर्ण सिद्ध न होगा; वह इसके ठीक विपरीत होगा। जब तुम किसी से कोई आशा करते हो, तो उसमें तुम्हारी अपनी आकांक्षा जुड़ी होती है। जब मैं कहता हूं कि तुम से आशा है, तो मेरा मतलब होता है कि चाहे कोई सी भी दिशा हो, कोई सी भी दिशा तुम आगे बढ़ने के लिए 'लो - तुम में विकसित होने की, खिलने की अदभुत क्षमता है। जब तुम प्रेम में होते हो, तो तुम्हें ऐसा नहीं लगेगा कि तुम प्रेमी हो उस समय यही प्रतीति होती है कि प्रेम ही हो। इसीलिए जीसस कहते हैं, परमात्मा प्रेम है। उन्हें कहना चाहिए था, परमात्मा बड़ा प्रेमपूर्ण है।' उनकी भाषा ठीक नहीं है। आखिर इसका मतलब क्या है कि परमात्मा प्रेम है?' वे कह रहे हैं कि परमात्मा और प्रेम पर्यायवाची हैं। वस्तुतः उनका यह कहना कि परमात्मा प्रेम है, यह एक पुनरुक्ति ही है। ऐसा कहा जा सकता है कि वे कह रहे हैं, प्रेम प्रेम है, या परमात्मा परमात्मा है। प्रेम परमात्मा का गुणधर्म नहीं है परमात्मा का होना ही प्रेम है। परमात्मा प्रेममय नहीं है, परमात्मा प्रेम है। ऐसा ही तब होता है जब कोई व्यक्ति संबोधि को उपलब्ध हो जाता है। वह अपनी संबोधि के प्रति होशपूर्ण नहीं होता है, वह तो बस होश ही होता है। वह चैतन्य में ही जीता है, वह चैतन्य में ही सोता है, वह चैतन्य में ही उठता बैठता है। वह चैतन्य में ही जीता है, वह चैतन्य में ही मरता है। चैतन्य स्वरूप होना उसके लिए एक शाश्वत स्रोत बन जाता है। उसके जीवन में चैतन्य अवस्था उसके अस्तित्व की न डगमगाने वाली लौ के समान होती है। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि यह अवस्था एक थिर अवस्था बन जाती है। यह व्यक्ति कार गुण नहीं होता है, यह कोई सांयोगिक बात नहीं है। लेकिन जब व्यक्ति चैतन्य अवस्था को उपलब्ध हो जाता है, तो इसे छीना नहीं जा सकता है। उसका संपूर्ण अस्तित्व ही चैतन्यमय हो जाता है। दूसरा प्रश्न : मैं अक्सर दो मन में रहता हूं- सूर्य और चंद्र मन में। कृपया कुछ कहें।
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy