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________________ मछली बोली, 'मैं बहुत चिंतित और परेशान हूं, क्योंकि मैं जानना चाहती हूं कि सागर क्या है, कैसा है? मैंने सागर के विषय में बहुत कुछ सुना है, लेकिन मेरा कभी उससे मिलना नहीं हुआ है।' और उस मछली की यह बात सुनकर वह राजा मछली जोर से हंस पड़ी और बोली, 'अरे मूढ़, तू उसी में तो है, तू सागर में ही तो है!' लेकिन जब कोई चीज हमारे एकदम निकट होती है, या कहें कि हम उसी में होते हैं, तो उसे पहचानना कठिन होता है। फिर कभी हमारा उससे मिलना नहीं होता। हम समय में जीते हैं, लेकिन समय के साथ हमारा मिलना कभी नहीं होता, क्योंकि समय को पकड़ा नहीं जा सकता। उसकी व्याख्या करना असंभव है। हम परमात्मा में ही हैं, इसलिए परमात्मा की व्याख्या करना बहुत कठिन है। हमें संबोधि मिली ही हुई है, बस थोड़ा सा भीतर मुड़कर देखने की बात है। थोड़ी सी साफ -सुथरी दृष्टि, स्वयं से पहचान, और स्मृति की बात है। इसीलिए मैं कहता हूं कि मैं तो तैयार हूं तुम्हें संबोधि दे देने के लिए क्योंकि संबोधि तो मौजूद है ही। संबोधि के लिए करने को कुछ है नहीं। अगर तुम मुझे थोड़ी देर के लिए तुम्हारा हाथ पकड़ने दो-तो बस इतना पर्याप्त है। दूसरी बात: पूछी है – 'ऐसा क्यों है कि पतंजलि ने तो कभी रेचन के संबंध में कुछ कहा ही नहीं, जब कि आप तो रेचन पर बहुत जोर दिए चले जाते हैं?' इस बात को मैं तुम से एक कथा के माध्यम से कहना चाहंगा. एक लड़खड़ाते हुए शराबी ने अपने पास से गुजरते आदमी को रोका और उससे समय पूछा। उस आदमी ने अपनी घड़ी देखी और समय बता दिया। वह शराबी तो चकित और विस्मय -विमुग्ध होकर अपना सिर हिलाने लगा, और नशे में झूमता हुआ बोला, 'मुझे तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है, सारी रात मुझे अलग-अलग उत्तर ही मिलते रहे हैं।' सारी रात! जब तुम मेरे और पतंजलि के विषय में कुछ सोच-विचार आरंभ करो, तो पांच हजार वर्षों के भेद को खयाल में रखना। और तब सारी रात तुम्हें अलग-अलग उत्तर मिलते रहेंगे? जब पतंजलि इस पृथ्वी पर मौजूद थे, तो उस समय आदमी बिलकुल अलग ही ढंग का था। उस समय मनुष्य जाति बिलकुल ही अलग तरह की थी। उस समय रेचन की कोई जरूरत न थी। लोग नैसर्गिक थे, स्वाभाविक थे, सहज थे, सरल थे और बच्चों के समान भोले - भाले थे। किसी बच्चे को रेचन की कोई जरूरत नहीं होती, केवल अधिक उम्र के लोगों को ही रेचन की आवश्यकता होती है। बच्चे के पास किसी प्रकार का लोभ, मोह, क्रोध या अन्य किसी प्रकार की कोई ग्रंथि नहीं होती, उसके भीतर अभी कुछ संगृहीत नहीं हुआ है।
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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