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________________ करने लग तो मैं हमेशा परमात्मा से नीचे रहूंगा-हमेशा नीचे ही रहूंगा, तब तो श्रेष्ठ होने की कोई संभावना ही न रहेगी। इसलिए नीत्शे कहता है, 'परमात्मा की धारणा को गिरा देना ही ठीक है।' नीत्शे का कहना है, कि दो एक जैसे श्रेष्ठ व्यक्तित्व मैं और परमात्मा कैसे अस्तित्व रख सकते हैं? यह दुष्ट राजा जरूर नीत्शेवादी रहा होगा। बेचारे पंडित-पुरोहित भय के मारे कांपने लगे -क्योंकि वे जानते थे कि अगर वे कह दें कि परमात्मा श्रेष्ठ है, तो तुरंत उनको मृत्यु -दंड की सजा दे दी जाएगी, उन्हें मार दिया जाएगा, उनकी हत्या कर दी जाएगी। चूंकि पंडितो का धंधा ही चालाकी का है तो उन्होंने राजा से थोड़ा समय मांगा और इस तरह से अपनी पुरानी आदत के अनुसार वे अपने - अपने पदों से चिपके ही रहे। लेकिन उन कुछ पंडितो में से कुछ ऐसे लोग भी थे जो परमात्मा को भी नाराज नहीं करना चाहते थे, इसलिए दिलाया कि 'इसे मुझ पर छोड़ दो, कल मैं राजा से बात करूंगा।' दूसरे दिन जब राजदरबार लगा, तो वह वृद्ध पंडित अपने दोनों हाथ जोड़कर, माथे पर सफेद भभूत लगाकर शांत मुद्रा में दरबार में पहुंचा। वह अपना सिर झुकाकर जोर -जोर से इन शब्दों का उच्चारण करने लगा 'ओ सर्वशक्तिमान, निस्संदेह आप ही महान हो '-राजा ने अपनी लंबी मूंछे शान अपने राज्य के बाहर नहीं निकाल सकता। क्योंकि उसका राज्य तो सब जगह है इसलिए उसके राज्य से बाहर जाने को कहीं कोई जगह ही नहीं है।' परमात्मा से अलग होने का, उसके राज्य से बाहर जाने की कहीं कोई जगह ही नहीं है। यही व्यक्ति की अद्वितीयता है, उसका अनूठापन है -और यही सभी की अद्वितीयता और अनूठापन है। परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ होने का कोई उपाय ही नहीं है। यही व्यक्ति की अद्वितीयता और उसका अनूठापन है, और यही सभी का अनूठापन है। स्वयं का सम्मान करो और दूसरों का भी सम्मान करो। जिस क्षण हम स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने में लग जाते हैं, हम स्वयं का ही अपमान करने लगते हैं, क्योंकि स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयास ही यह दर्शाता है कि हम यह मानते हैं कि हम अद्वितीय और अनूठे नहीं हैं –इसीलिए इसे सिद्ध करने का प्रयास करते हैं - और इस तरह से हम दूसरों का भी असम्मान करते हैं। अपना सम्मान करो, दूसरों का भी सम्मान करो, क्योंकि कहीं गहरे में हम एक-दूसरे से अलग नहीं हैं। हम एक -दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं, हम एक हैं। हम एक-दूसरे के सहयोगी हैं। हम छोटे -छोटे दवीपों की तरह नहीं है, हम परमात्मा के विशाल महादवीप हैं।
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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