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________________ पछा है आनंद बोधिसत्व ने। कोई भी अनभव, चाहे कोई सा भी अनुभव क्यों न हो वह पर्याप्त नहीं होता। फिर चाहे वह कार्य का अनुभव हो, या प्रेम का अनुभव हो, या फिर चाहे वह ध्यान का अनुभव ही क्यों न हो, या तुम उसे परमात्मा का अनुभव भी कह सकते हो -कोई भी अनभव पर्याप्त न होगा, तृप्तिदायक नहीं होगा, क्योंकि सभी अनुभव हम से बाहर ही घटित होते हैं। और तुम अनुभवों के पीछे ही छिपे रहते हो। क्योंकि तुम साक्षी हो, तुम अनुभवों के भी साक्षी हो। अनुभव तुम्हें घटता है, लेकिन तुम अनुभव नहीं हो। तो कैसा भी अनुभव हो, कोई भी अनुभव कभी भी पूर्ण न होगा। क्योंकि अनुभव करने वाला, वह व्यक्ति जो अनुभव कर रहा है, वह सदा अनुभव से अधिक बड़ा है। और अनुभव तथा अनुभव करने वाले के बीच का भेद वहा हमेशा विदयमान रहता है-उन दोनों के बीच एक अंतराल सदा विदयमान रहता है-और वही अंतराल तुमसे कहे चला जाता है कि, 'ही, कुछ घट तो रहा है लेकिन फिर भी पर्याप्त नहीं है। कुछ और अधिक चाहिए।' यही है मनुष्य के मन की पीड़ा, मनुष्य के मन का संताप। इसीलिए मन और- और की मांग किए चला जाता है। तुम धन कमाते हो, और मन कहता है, और अधिक चाहिए। तुम मकान बनाते हो, मन कहता है, और बड़ा मकान बनाओ। तुम किसी राज्य का निर्माण करते हो और मन कहता है और अधिक बड़ा राज्य चाहिए। फिर अगर तुम ध्यान करो तो वही मन कहता है, अभी ध्यान परिपूर्ण नहीं हुआ। अभी तो और भी बहुत से शिखर हैं जिन पर अभी पहुंचना है। और यह सब ऐसा ही चलता रहेगा, क्योंकि यह स्वयं अनुभव का ही स्वभाव है कि अनुभव कभी पूर्ण नहीं हो सकता। तो फिर मन के लिए कौन सी बात पूर्ण हो सकती है? तो फिर मन कैसे पूरी तरह से तृप्त हो सकता है? तुम तो बस अनुभव के साक्षी बने रहना : अनुभव में खो मत जाना, अनुभवों में भटक मत जाना। बस, तुम तो साक्षी बने रहना। और यह जानते हुए कि यह भी एक अस्थायी भावदशा है, यह जाएगा। अच्छा –बुरा, सुंदर- असुंदर, आनंद-दुख-सभी भाव दशाएं क्षणभंगुर हैं, यह भी बीत जाएंगी तुम मौन रहकर इन सबको शाति से देखते रहना। इनके साथ तादात्म्य मत बनाना। अन्यथा तुमको न तो प्रेम से तृप्ति होगी, और न ही ध्यान से। क्योंकि वस्तुत: ध्यान है क्या? ध्यान कोई अनुभव नहीं है ध्यान है साक्षी के प्रति जागरूक हो जाना। बस द्रष्टा हो जाओ, केवल द्रष्टा और जब द्रष्टा ही रह जाए तब सभी कुछ परिपूर्ण हो जाता है। बिना द्रष्टा के सभी कुछ अपूर्ण रहता है। द्रष्टा के साथ सभी कुछ समग्र और पूर्ण हो जाता है, वरना बिना द्रष्टा के कोई भी चीज पूरी तरह से संतृप्ति नहीं दे सकती। अगर तुम साक्षी में रहते हो, तो फिर जीवन का छोटे से छोटा कृत्य भी, फिर वह चाहे स्नान करना ही क्यों न हो, इतना तृप्तिदायी और संतोषप्रद होता है कि तुम उससे कुछ ज्यादा की अपेक्षा ही नहीं कर
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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