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________________ पतंजलि की दर्शन -प्रणाली में बाह्य संसार और आंतरिक संसार में एक गहन तालमेल है। वैसा ही होना भी चाहिए; वे एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। हमें प्रकाश दिखाई देता है, प्रकाश सूर्य से आता है। आंखें उसे ग्रहण करती हैं। अगर आंखें उसके प्रति ग्राहक न हों, तो सूर्य मौजूद भी रहे लेकिन हम अंधकार में ही जीएंगे। अंधे आदमी के साथ ऐसा ही तो होता है, अंधे आदमी की आंखें कुछ ग्रहण नहीं करती। तो आंखों का सूर्य के साथ तालमेल है। आंखें शरीर में सूर्य का प्रतिनिधित्व करती हैं, वे परस्पर जुड़े हए हैं। सूर्य आंखों को प्रभावित करता है, आंखें सूर्य के प्रति संवेदनशील और ग्राहक होती हैं। इसी तरह से ध्वनि कानों पर प्रभाव डालती है। ध्वनि बाहर होती है, कान शरीर के अंग होते हैं। बाहर की वास्तविकता तत्व-रूप में जानी जाती है, भौतिक –तत्व के रूप में, और भीतर की गतिमयता तन्मात्र कहलाती है, भीतर के मूल-तत्व के रूप में। पतंजलि की दर्शन -प्रणाली में इन दोनों को समझना बहुत महत्वपूर्ण है।'तत्व' जो है वह 'बाहर की वास्तविकता है, सूर्य और बाहर की वस्तुओं के बीच तालमेल। और भीतर की गतिमयता जिसे पतंजलि 'तन्मात्र' कहते हैं, भीतर के मूल तत्व कहलाते हैं। इसीलिए आख और सूर्य के बीच, ध्वनि और कान के बीच, नाक और गंध के बीच एक तरह का तालमेल और संवाद रहता है। एक अदृश्य तालमेल जो दिखायी तो नहीं पड़ता है, लेकिन फिर भी उनके बीच कुछ जुड़ा हुआ और सेतु बद्ध होता है। जब व्यक्ति ध्यान में गहरा जाता है और ध्यान की गइराई में शून्यता के अंतरालों को, गेपों को समझ सकता है, तो पहले तो 'निरोध 'घटित होता है, और वही अंतराल धीरे – धीरे बढ़ते हुए समाधि बन जाते हैं, उसके बाद 'एकाग्रता परिणाम' का उदय होता है, तब व्यक्ति 'तन्मात्राओं को, आंतरिक मूल तत्वों को, सूक्ष्म तत्वों को जान सकता है। हम सूर्य को तो आख से देख सकते हैं, लेकिन हमने स्वयं की आख को अभी तक नहीं देखा है। केवल गहन शून्यता की स्थिति में, जागरूक होकर ही हम स्वयं की आख को देख सकते हैं। हम ध्वनि सुनते हैं, लेकिन हमने ध्वनि के प्रति अपने कान को प्रतिध्वनित होते नहीं सुना है। जो ध्वनि तरंग कान के दवारा आती है, वह एक सूक्ष्म तरंग होती है हमने अभी भी उसे सुना नहीं है। वह ध्वनि बहुत सूक्ष्म होती है और हम बहुत स्थूल हैं। हम अभी इतने परिष्कृत नहीं हुए हैं कि उस सूक्ष्म ध्वनि को सुन सकें। अत: अभी उस सूक्ष्म संगीत को सुनना हमारे लिए संभव नहीं है। हम एक गुलाब के फूल को तो सूंघ लेते हैं, लेकिन हम अभी स्वयं के भीतर के उस सूक्ष्म तत्व को नहीं सूंघ पाए हैं जो गुलाब को सूंघता है, जो तन्मात्र है। योगी उस अंतर - ध्वनि को जो निपट सन्नाटा है, मौन है, उसको सुनने में सक्षम हो जाता है। योगी आख को भीतर की उस आख को देखने में सक्षम हो जाता है, जो परिशदध निर्मल दृष्टि है। और उसी में अदृश्य हो जाने की पूरी प्रक्रिया समाहित है। ......शरीर के स्वरूप पर संयम संपन्न करने से......'
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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