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________________ बुद्ध जितने ईश्वरमय हैं, उतने ही ईश्वर -विहीन भी हैं। जो लोग भी बुद्धत्व को उपलब्ध होते हैं, वे ही और नहीं दोनों के पार उठ जाते हैं, वे दोनों के पार चले जाते हैं। स्मरण रहे, सार्च कहीं न कहीं अभी भी नहीं के छोर को, नकार के छोर को ही पकड़े हुए है। इसीलिए वह निरंतर उदासी, हताशा, चिंता, पीड़ा-व्यथा की ही चर्चा किए चला जाता है। नकार की ही चर्चा किए चला जाता है। उसने एक पुस्तक लिखी है, जो कि उसकी एक बड़ी महान साहित्यिक रचना है, 'बीइंग एंड नथिगनेस।' इस पुस्तक में उसने यह प्रमाणित करने की कोशिश की है कि बीइंग, अस्तित्व जैसा कुछ भी नहीं है -उसने उस पुस्तक में अस्तित्व को समग्र रूप से नकारा है। इसके बावजूद भी वह उसे ही पकडे रहे। फिर भी सार्च एक प्रामाणिक व्यक्ति है। उसकी नहीं में, उसकी नकार में सच्चाई है। उसने इस नकार कहने को अर्जित किया है। उसने केवल परमात्मा को अस्वीकार ही नहीं किया है वह उस अस्वीकार में जीया भी है। और इसके लिए उसने पीड़ा उठायी है, दुख उठाया है, इसके लिए उसने त्याग किया है। इसलिए उसकी नकार में, नहीं में एक प्रामाणिकता है। तो दुनिया में दो तरह के नास्तिक होते हैं -जैसा कि प्रत्येक आयाम में, प्रत्येक दिशा में दो तरह की संभावनाएं होती हैं प्रामाणिक और अप्रामाणिक। व्यक्ति किन्हीं गलत कारणों से भी नास्तिक बन सकता है। एक कम्युनिस्ट भी नास्तिक होता है, लेकिन वह सच्चा नास्तिक नहीं होता है। उसके नास्तिक होने के कारण झूठे होते हैं, उसके नास्तिक होने के कारण बनावटी होते हैं। उसने अपनी नकार को, नहीं को जीया नहीं है। उसके लिए उसने कुछ दाव पर नहीं लगाया है। नहीं को, नकार को जीने का मतलब नकारात्मकता की वेदी पर स्वयं को बलिदान कर देने जैसा होता है। भयंकर पीड़ा और विषाद को झेलना पड़ता है। व्यक्ति अंधकार में टटोलता हुआ भटकता रहता है, और कभी-कभी मन की उस निराश अवस्था में चला जाता है जहां सिवाय अंतहीन अंधकार के और कुछ नहीं बचता है और जीवन में किसी तरह की कोई आशा नहीं रह जाती है। नहीं को जीने का है बिना किसी उददेश्य के, बिना किसी अर्थ के जीना। और उस समय किसी भी तरह से किसी भी प्रकार के भ्रम का निर्माण नहीं करना है; क्योंकि बहुत से प्रलोभन मौजूद होते हैं। क्योंकि जब गहन अंधकार हो तो ऐसे बहुत से प्रलोभन उठते हैं कि कम से कम सुबह का सपना ही देख लो, सुबह के बारे में विचार ही कर लो, अपने आसपास सुबह को पा लेने का एक भ्रम ही खड़ा कर लो। और जब आशा का निर्माण होने लगता है, तो उसमें विश्वास भी आने लगता है, क्योंकि बिना विश्वास के आशा संभव ही नहीं है। अगर व्यक्ति विश्वास करता है तो आशा कर सकता है। जबकि विश्वास भी अप्रामाणिक होता है, अविश्वास भी अप्रामाणिक होता है। सार्च की नहीं में, नकार में सचाई है। वह उस नकार में जीया है; उसने उसके लिए पीड़ा झेली है। इसलिए वह किसी भी विश्वास को नहीं पकड़ सकेगा। कैसा भी प्रलोभन हो, वह स्वप्न नहीं देखेगा।
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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