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________________ थिरकन आ जाती है, तुम्हारे हृदय में गीत गुंजने लगता है। पहली बार तुम्हारा मन और शरीर एक लयबदधता में काम करने लगता है। और तब एक तरह की संतुष्टि और संतृप्ति अनुभव होती है। तब उस काम के माध्यम से तुम अपने जीवन अस्तित्व को उपलब्ध हो सकते हो -तब वह काम दर्पण बन जाएगा, और उसमें तुम अपने को देख सकते हो। चाहे वह एक छोटा सा काम ही क्यों न हो। फिर कोई ऐसा जरूरी नहीं है कि केवल बड़े काम से ही ऐसा संभव हो सकता है। नहीं, ऐसा कोई जरूरी नहीं है। फिर छोटा काम भी बड़ा हो जाता है। तुम बच्चों के खिलौने बनाते हो, या जूते बनाते हो, या कपड़ा बनाते हो, या कोई सा भी काम करते हो -उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि क्या करते हो, लेकिन अगर तुम उस कार्य से प्रेम करते हो, अगर तुम उस काम के प्रेम में पड़ जाते हो, अगर उस काम को तुम बेशर्त भाव से, अस्तित्व के हाथों में छोड़कर उसके साथ प्रवाहित हो रहे हो, अगर तुम स्वयं को रोक नहीं रहे हो, अगर तुम स्वयं के साथ जबर्दस्ती करके काम को नहीं कर रहे हो –बल्कि उसी काम को हंसते, गाते, नाचते कर रहे हो -तो वह कार्य तुम्हारे जीवन को रूपांतरित कर देगा। धीरे -धीरे विचार बिदा हो जाएंगे। और एक गहन मौन संगीत तुम पर छा जाएगा और धीरे - धीरे तुम अनुभव करने लगोगे कि वह काम केवल काम ही नहीं है, बल्कि वही तुम्हारे होने का ढंग है। तब जीवन में एक तरह की संतृप्ति और संतुष्टि होती है, और भीतर फूल ही फूल खिल जाते हैं। और वह व्यक्ति सर्वाधिक समृद्ध होता है जिसे अपने आंतरिक स्वभाव के अनकूल काम मिल जाता है। और वह व्यक्ति सर्वाधिक समृद्ध होता है जो अपने काम के माध्यम से हार्दिक तृप्ति अनुभव करता है। तब उसका संपूर्ण जीवन ही पूजा और प्रार्थना बन जाता है। काम पूजा-अर्चना की तरह होना चाहिए, लेकिन ऐसा केवल तभी संभव है जब तुम्हारा ध्यान रोज -रोज गहरा होने लगे। ध्यान के दवारा ही तुम्हें बल मिलेगा। ध्यान के दवारा बाह्य पेशे से हटकर अपने अतर स्वभाव के अनुकूल काम की ओर बढ़ने का त्ममें साहस आएगा। व्यवसाय के द्वारा शायद तुम धन इकट्ठा करके समृद्ध हो सकते हो, लेकिन वह समृद्धि बाहरबाहर की होती है। लेकिन अपने स्वभाव के अनुकूल काम करके तुम दरिद्र रह सकते हो; तुम बहुत धनवान शायद न भी हो सको, क्योंकि समाज के व्यक्ति को देखने के अपने प्रयोजन होते हैं, अपने मापदंड होते हैं। तुम कविताएं लिखो और हो सकता है कि कोई उन्हें खरीदे भी नहीं, क्योंकि समाज को कविता की जरूरत नहीं है। समाज बिना कविता के रह सकता है –समाज इतना मूढ़ है कि बिना कविता के रहने में समर्थ हो सकता है। हा, अगर तुम युद्ध के लिए, हिंसा के लिए कुछ बना सकते हो, तो वह समाज के लिए उपयोगी है, वह समाज के फायदे की है। लेकिन अगर तुम प्रेम के लिए कुछ करो -तो लोग अधिक प्रेमपूर्ण हो जाएंगे -तब समाज उसके लिए कुछ नहीं कर सकता।
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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