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________________ और पतंजलि कहते हैं, यही स्थिति है तुम्हारे आसपास संसार बदल रहा है, शरीर बदल रहा है, इंद्रियां बदल रही हैं, मन बदल रहा है, सभी कुछ बदल रहा है – और अगर तुम भी इनके साथ बदल रहे हो, तो फिर अपरिवर्तनीय को, शाश्वत को खोजने की कोई संभावना नहीं बचती है। यह सत्य है कि शेष सभी कुछ परिवर्तित हो रहा है। संसार निरंतर परिवर्तित हो रहा है। और तीव्रता से परिवर्तित हो रहा है; उसमें ठहराव जैसा कुछ भी नहीं है। संसार का परिवर्तित होना एक अनवरत प्रवाह है। और संसार को ऐसा होना ही है। संसार में केवल एक ही चीज स्थायी है, और वह है स्वयं परिवर्तन। परिवर्तन के अतिरिक्त शेष सभी कुछ बदल रहा है। केवल परिवर्तन ही स्थायी रूप में बना रहता है। हर पल शरीर बदल रहा है। रोज-रोज शरीर की उम्र बढ़ रही है, शरीर आगे बढ़ रहा है, अगर शरीर विकासमान न हो तो आदमी वृद्ध कैसे होगा, युवा कैसे होगा, बालक से जवान कैसे हो सकेगा? क्या कोई यह बता सकता है कि कब बच्चा बालक से युवा हो गया, या युवा आदमी से किस समय वृद्ध हो गया? कठिन है बताना। सच तो यह है कि अगर किसी फिजीशियन से पूछा जाए तो उन्हें अभी भी यह स्पष्ट नहीं है कि ठीक-ठीक किस समय पता चलता है कि कोई आदमी अभी जीवित था और थोड़ी देर बाद मर गया। कुछ भी बताना असंभव है। इसकी परिभाषा अभी भी स्प्ष्ट नहीं है, क्योंकि जीवन एक प्रक्रिया है, गतिमयता है। सच तो यह है जब कोई आदमी मर भी जाता है और उसके घर-परिवार के लोग, नाते -रिश्तेदार, मित्र उसके पास से हट भी जाएं, तो भी शरीर में थोड़ी - बहुत प्रक्रिया जारी रहती है -जैसे नाखूनों का बढ़ना, बालों का बढ़ना फिर भी जारी रहता है। शरीर का कोई हिस्सा अभी भी जीवित और विकासमान रहता है। कब व्यक्ति को मृत घोषित किया जाए, अभी तक फिजीशियन लोग भी ठीक से नहीं समझ पाए हैं। सच तो यह है जीवन और मृत्यु की कोई परिभाषा की भी नहीं जा सकती है, क्योंकि शरीर एक प्रवाह है। शरीर निरंतर परिवर्तित हो रहा है, मन परिवर्तित हो रहा है –हर क्षण मन परिवर्तित हो रहा है। अगर इस परिवर्तनशील संसार के साथ तुम भी निरंतर परिवर्तित हो रहे हो, और साथ ही अगर सत्य की, परमात्मा की, आनंद की खोज कर रहे हो, तो सिवाय निराशा और हताशा के कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। स्वयं के भीतर जाओ, और विचारों के बीच के उन अंतरालों में इबकी मारो जहां न संसार का अस्तित्व होता है, न मन का अस्तित्व होता है, और न ही शरीर का अस्तित्व होता है। उन्हीं अंतरालों में पहली बार उस शाश्वत से साक्षात्कार होता है, जिसका न कोई प्रारंभ है और न कोई अंत है, जो कभी परिवर्तित नहीं होता है। 'चाहे वे सुप्त हों या सक्रिय हों या अव्यक्त हों, सारे गुणधर्म आधार-तत्व में अंतर्निष्ठ होते हैं।' पतंजलि कहते हैं कि चाहे फूल खिला हुआ हो या मुझ गया हो, उससे कुछ भेद नहीं पड़ता। जब फूल खिला हुआ होता है तो उसके मुझ जाने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है, और जब फूल वृक्ष की डाली से
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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