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________________ बाहरी चीजों द्वारा होने वाले विक्षेपों का त्याग करने से व्यक्ति प्रत्याहार के योग्य हो जाता है, घर लौट आता है। अब बाहर के संसार में कोई रस नहीं रहता, इसलिए तुम हजारों दिशाओं में भटकते नहीं। अब तुम स्वयं को जानना चाहते हो; स्वयं को जानने की आकांक्षा बाकी सारी आकांक्षाओं का स्थान ले लेती है। अब केवल एक ही आकांक्षा बचती है : स्वयं को जानने की। ततः परमा वश्यतेन्द्रियाणाम्। फिर समस्त इंद्रियों पर पूर्ण वश हो जाता है। जब तुम घर लौट आते हो, भीतर आ जाते हो, तो अचानक तुम मालिक हो जाते हो। यही सौंदर्य है इस प्रक्रिया का। यदि तुम बाहर भटकते रहते हो, तो तुम गुलाम रहते हो-और न मालूम कितनी चीजों के गुलाम रहते हो। तुम्हारी गुलामी अनंत होती है, क्योंकि तुम्हारी आकांक्षा के विषय अनंत होते हैं। ऐसा हुआ. मैं प्रोफेसर था यूनिवर्सिटी में। मेरे पड़ोस में एक दूसरे प्रोफेसर रहा करते थे। मैंने ऐसा कंजूस आदमी नहीं देखा; वे सच में ही असाधारण थे। उनके पास काफी रुपया-पैसा था; उनके पिता काफी धन छोड़ गए थे। वे और उनकी पत्नी वहां रहते थे। बहुत धन था, बड़ा मकान था, हर चीज थी-लेकिन वे ऐसी साइकिल में चलते जिसकी शहर भर में चर्चा थी। वह साइकिल क्या थी एक चमत्कार थी। कोई और उसे नहीं चला सकता था. वह ऐसी खस्ता हालत में थी कि असंभव था उसे चलाना। शहर भर जानता था कि वे कभी ताला नहीं लगाते साइकिल में, क्योंकि कोई जरूरत न थी-कौन चुराता उसे। लोगों ने एक-दो बार कोशिश की, और फिर लौटा गए। वे थिएटर जाते तो साइकिल बाहर रख देते। वे कभी स्टैंड पर नहीं रखते, क्योंकि एक आना देना पड़ता। वे कहीं भी रख देते उसे। और तीन घंटे बाद जब वे आते, तो उन्हें हमेशा साइकिल वहीं रखी मिलती। उसमें कोई मडगार्ड नहीं थे, कोई हॉर्न नहीं था, कोई चेन कवर नहीं था, और वह इतना शोर करती थी कि एक मील से पता लग जाता था कि वे प्रोफेसर आ रहे हैं। धीरे- धीरे, वे मेरे मित्र बन गए। मैंने उन्हें राय दी: अब बहुत हुआ और सब तुम्हारी साइकिल का मजाक उड़ाते हैं। इससे छुटकारा क्यों नहीं पा लेते?' उन्होंने कहा, 'क्या करूं? मैंने कोशिश की इसे बेचने की, लेकिन कोई तैयार ही नहीं होता इसे खरीद। मैंने कहा, 'कोई तैयार नहीं होता इसे खरीदने के लिए, क्योंकि यह किसी काम की नहीं है। जाओ और इसे नदी में फेंक आओ-और परमात्मा को धन्यवाद दो अगर कोई इसे वापस न ले आए।' उन्होंने कहा, 'मैं सोचूंगा इस बारे में।'
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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