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________________ दिया होता।' तो तुम छोड़ ही चुके हो और संन्यास का कोई अर्थ नहीं है। कृपा करके इसे वापस कर दो-क्योंकि यह तो एक बंधन हो गया। तुम कहते हो, 'मैंने आपको छोड़ दिया होता'-अब यह संन्यास तुम्हारी जंजीर बन रहा है। गिरा दो उसे। मैं यहां तुम्हें मुक्ति देने के लिए हूं तुम्हें बांधने के लिए नहीं। भूल जाओ उसे। 'और मेरे पहले गुरु भी शायद अब मुझे स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि मैंने उनको छोड़ दिया और अपनी श्रद्धा खोई।' यह तुम्हारे अपने निर्णय की बात है। अगर पुराना गुरु तुम्हें स्वीकार नहीं करेगा तो तुम किसी नए गुरु के पास जा सकते हो, या तुम पुराने गुरु के पास जा सकते हो और दोबारा कोशिश कर सकते हो। अगर पुराना गुरु सच में ही गुरु था तो वह हजारों बार स्वीकार करेगा, क्योंकि जब कोई शिष्य धोखा देता है, तो यह कुछ ज्यादा उपद्रव की बात नहीं होती। यह करीब-करीब स्वाभाविक बात होती है। अज्ञानी व्यक्तियों से इससे ज्यादा की?, तो अपेक्षा भी नहीं रखी जा सकती। तो जाओ और आजमाओ पुराने गुरु को ही। शायद वह तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हो। और यदि वह क्षमा नहीं कर सकता तो वह गुरु नहीं; तो फिर कहीं और ढूंढ लेना किसी को। और तुम कहते हो, 'बहरहाल, मैं आप में श्रद्धा नहीं खोना चाहता।' तुम खो ही चुके श्रद्धा। असल में, तुम्हारे पास कभी वह थी ही नहीं। क्योंकि एक बार तुम्हें श्रद्धा हो तो कैसे उसको तुम खो सकते हो? कठिन है इसे समझना, लेकिन एक बार तुम्हें श्रद्धा हो तो तुम उसको खो नहीं सकते। यह कुछ ऐसी बात नहीं है जिसे वापस लिया जा सके। कौन लेगा उसे वापस? श्रद्धा का अर्थ होता है : तुम अपने अहंकार को समर्पित कर देते हो। यह अंतिम कृत्य हो सकता है अहंकार का। एक बार अहंकार समर्पित हो गया, फिर कैसे तुम वापस ले सकते हो उसको? यदि तुम वापस ले सकते हो उसको, तो उसका मतलब समर्पण समर्पण था ही नहीं-तुम खेल रहे थे शब्द के साथ, तुम्हें पता ही नहीं था कि इसका अर्थ क्या होता है। अगर तुम समर्पण करते हो, तो समर्पण समग्र और अंतिम होता है-आत्यंतिक होता है। पीछे जाने का, पीछे लौटने का कोई उपाय नहीं रहता। 'बहरहाल, मैं आप में श्रद्धा नहीं खोना चाहता।' यह विचार ही क्यों उठ रहा है? तुम्हारे पास श्रद्धा है नहीं; तुम खो ही चुके हो उसको। असल में वह कभी थी ही नहीं तुम्हारे पास। यह बात विरोधाभासी मालूम पड़ेगी, लेकिन यह सच है। पहली तो बात केवल वही श्रद्धा खो सकती है जो कभी थी ही नहीं। अगर तुम में श्रदधा नहीं है तो ही तुम खो सकते हो उसको; अगर श्रद्धा है तो खोने की कोई संभावना नहीं है। बिलकुल असंभव है उसे खो देना, क्योंकि श्रद्धा में तुमने अपने को ही खो दिया होता है, अब कोई पीछे बचता नहीं जो इसे वापस ले सके और अपने घर चला जाए।
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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