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________________ हैं-तब यह समस्या ही नहीं होती। चीजों के कम-ज्यादा होने से इसका कोई लेना-देना नहीं है। तब यह जीने का सहज ढंग होता है-जीने का जटिल ढंग नहीं। और कठिन है इस बात को समझना. यदि बिना संतोष को उपलब्ध हुए तुम तपस्वी होने का प्रयास करते हो, तो तुम्हारी तपस्या उलझी हुई होगी, जटिल होगी। एक बार ऐसा हुआ, मैं फर्स्ट क्लास के डिब्बे में एक दूसरे संन्यासी के साथ यात्रा कर रहा था। मैं उस संन्यासी को नहीं जानता था, वह संन्यासी मुझे नहीं जानता था, लेकिन डिब्बे में हम दो ही यात्री थे। किसी स्टेशन पर बहुत से लोग उससे मिलने आए; वह जरूर बहुत प्रसिद्ध व्यक्ति होगा। कुछ नहीं था उसके पास, बस एक छोटा सा झोला था, शायद एक-दो वस्त्र, और एक छोटी सी लुंगी घुटनों तक, और वह करीब-करीब नग्न ही था। और वह लुंगी भी सस्ते से सस्ते कपड़े की थी। फिर हम यात्रा में साथ रहे, धीरे-धीरे मैं उसकी जटिलताओं के प्रति सजग हआ; वैसे वह एक सीधासादा आदमी था जहां तक बाहरी रंग-ढंग का प्रश्न है। जब स्टेशन पीछे छूट गया और वे लोग चले गए और गाड़ी चली और उसने देखा कि मैं ऊंघ रहा हूं -मैंने आंखें बंद की हुई थीं-तो तुरंत उसने अपने झोले में से कुछ निकाला। मैं सोया नहीं था। मैंने देखा वह नोट गिन रहा था, कोई सौ रुपए से ज्यादा न होंगे, लेकिन जिस ढंग से वह गिन रहा था-ऐसे मजा लेकर, ऐसे लोभ के साथ कि मैं विश्वास न कर सका। यह देख कर कि मैं देख रहा हूं उसने तुरंत नोटों को झोले में डाल दिया और फिर से सीट पर बुद्ध की भांति बैठ गया। अब यह जटिलता है। यदि तुम गिन रहे हो तो गिन रहे हो। इससे क्या फर्क पड़ता है कि मैं देख रहा हूं या नहीं? क्यों छिपाना? क्यों इसके लिए अपराधी अनुभव करना? यदि तुम मजा ले रहे हो नोट गिनने का, तो कुछ गलत नहीं है इसमें-निर्दोष बात है, कुछ हर्ज नहीं है। लेकिन नहीं; उसने अपराध-भाव अनुभव किया. कि संन्यासी को तो नोट छने नहीं चाहिए! पर वह पकड़ में आ गया। फिर उसे जहां उतरना था वह स्टेशन सुबह छह बजे आने वाला था। लेकिन जहां भी गाड़ी रुकती, वह पूछता बार-बार-रात के दो बजे और वह खिड़की से बाहर झांकता और पूछता-कौन सा स्टेशन है यह? वह मेरी नींद इतनी बिगाड़ रहा था कि मैंने उससे कहा, 'चिंतित मत होओ। वह स्टेशन छह बजे से पहले तो आने वाला नहीं। और यह गाड़ी आगे जाती नहीं-तो तुम्हें फिक्र नहीं करनी चाहिए। यदि तुम गहरी नींद भी सोए हुए हो तो भी तुम चूक नहीं सकते स्टेशन-वह तो अंतिम स्टेशन है।' लेकिन वह सो नहीं सका सारी रात, वह इतना तनावग्रस्त था; और मैं समझ नहीं पा रहा था कि बेचैनी क्या है। सुबह, जब स्टेशन निकट आ रहा था, मैंने उसे दर्पण के सामने खड़े हुए देखा। कुछ ठीक-ठाक करने को न था, बस एक छोटी सी लुंगी थी, लेकिन वह बार-बार उसे ही बाध रहा था और देख रहा था दर्पण में कि वह ठीक लगती है या नहीं। तभी उसने फिर देख लिया मुझे देखते हुए तो वह एकदम
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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