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________________ तब तुम ज्यादा आनंदित अनुभव करोगे, बोझिल नहीं-ऊर्जा बह रही होती है, अवरुद्ध नहीं होती। और वह व्यक्ति जो भीतर के आकाश में उड़ान भरना चाहता है और जो प्रयास कर रहा है भीतर के केंद्र तक पहुंचने का, उसे निर्भार होने की जरूरत है, वरना यात्रा पूरी नहीं हो सकती। आलसी रह कर तुम उस आंतरिक केंद्र में प्रवेश नहीं कर पाओगे। कौन यात्रा करेगा उस आंतरिक केंद्र तक? तो जो तुम खाते हो उसके प्रति सावधान रहो; जो तुम पीते हो उसके प्रति सावधान रहो। सावधान रहो कि कैसे तुम ध्यान रखते हो अपने शरीर का। छोटी-छोटी बातें महत्व रखती हैं। साधारण व्यक्ति के लिए वे कोई महत्व नहीं रखती क्योंकि वह कहीं जा नहीं रहा होता है। जब तुम अंतर्यात्रा पर निकलते हो, तो हर चीज महत्व रखती है। तुम प्रतिदिन स्नान करते हो या नहीं-यह बात भी महत्वपूर्ण है। साधारणतया यह कोई महत्व नहीं रखती। बाजार में, दुकान में यह बात कुछ खास महत्व नहीं रखती कि तुमने ठीक से स्नान किया है या नहीं। असल में यदि तुम रोज ठीक से स्नान करते हो, तो यह बात तुम्हारे व्यवसाय के लिए एक अड़चन होगी। तुम इतना हलका अनुभव कर सकते हो कि चालाक होना कठिन हो जाए; तुम इतना ताजा अनुभव कर सकते हो कि धोखा देना कठिन हो जाए; तुम इतना शुद्ध, निर्दोष अनुभव कर सकते हो कि शोषण करना शायद असंभव ही हो जाए। तो अस्वच्छ रहना बाजार में तो मदद दे सकता है, किंतु मंदिर में नहीं। मंदिर में तुम्हें ताजा और स्वच्छ जाना होता है-ओस-कणों की भांति, फूलों की भांति। मंदिर में, जहां तुम अपने जूते छोड़ते हो, वहीं छोड़ देना सारे संसार को और उसके सारे बोझों को। उन्हें भीतर मत ले जाना। स्नान सर्वाधिक सुंदर घटनाओं में से एक है-बडी सरल है। यदि तुम इसका आनंद लेने लगो, तो यह बात शरीर के लिए एक ध्यान बन जाती है। बस फव्वारे के नीचे बैठना और उसका आनंद लेना, कोई गीत गुनगुनाना-या कोई मंत्र गुनगुनाना-तब वह दुगुना जानदार हो जाता है। तुम फव्वारे के नीचे बैठे हो और 'ओम' का गंजार कर रहे हो और पानी बरस रहा है तम्हारे शरीर पर और 'ओम' बरस रहा है तुम्हारे मन में, तो तुम दोहरा स्नान कर रहे हो. शरीर शुद्ध हो रहा है पानी के द्वारा, वह संबंध रखता है भौतिक तत्वों के संसार से; और तुम्हारा मन शुद्ध हो रहा है ओम के मंत्र द्वारा। स्नान के बाद तुम स्वयं को प्रार्थना के लिए तैयार पाओगे-तुम प्रार्थना करना चाहोगे। इस स्नान और मंत्रउच्चार के बाद तुम बिलकुल भिन्न अनुभव करोगे; तुम्हारे चारों ओर एक अलग गुणवत्ता और सुवास होगी। तो शौच का अर्थ है. भोजन की शुदधता, शरीर की शुदधता, मन की शुदधता-शुदधता की तीन पर्ते। और चौथी जो कि तुम्हारी अंतस सत्ता है, उसे किसी शुद्धता की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि वह अशुद्ध हो ही नहीं सकती। तुम्हारा अंतरतम केंद्र सदा शुद्ध है, सदा कुंआरा है। लेकिन वह अंतस 'सद्र ढंका होता है दूसरी चीजों से जो अशुद्ध हो सकती हैं-जों रोज-रोज अशुद्ध होती हैं।
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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