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________________ साधारणतया तो धर्म बहुत विध्वंसात्मक रहे हैं। उन्होंने सारी मनुष्य-जाति को पंगु बना दिया है। उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति को अपराधी बना दिया है और यही सब से बड़ा अपराध है जो मनुष्य के विरुद्ध किया जा सकता है। और कुल तरकीब यह है : पहले तुम लोगों को अपराधी बना दो, जब वे करा रहे हों, अपराध से भयभीत हों, डर गए हों, बोझिल हों, नरक में जी रहे हों, तब तुम उनकी सहायता करो उसमें से बाहर आने में, तब तुम पहुंच जाओ और उन्हें सिखाओं कि कैसे मुक्त होना है। लेकिन पहली तो बात कि अपराध- भाव ही क्यों निर्मित करना? और जब मनुष्य अपराध- भाव में धिरा होता है तो बहुत पंगु हो जाता है और बढ़ने और विकसित होने से इतना भयभीत हो जाता है, अज्ञात और अपरिचित और अनजान में जाने से इतना भयभीत हो जाता है कि वह बिलकुल बंद हो जाता है, मुर्दा हो जाता है; फिर बहुत से लोग आ जाते हैं उसकी मुक्ति में मदद करने के लिए। पतंजलि तुम्हें कभी किसी चीज के बारे में कोई अपराध-भाव नहीं देते। इस अर्थों में वे धार्मिक होने की अपेक्षा वैज्ञानिक अधिक हैं, धर्मगुरु होने की अपेक्षा मनस्विद अधिक हैं। वे कोई उपदेशक नहीं है। जो कुछ भी वे कह रहे हैं, वे बस तुम्हें एक नक्शा दे रहे हैं कि विकसित कैसे हुआ जा सकता है; और यदि तुम विकसित होना चाहते हो तो तुम्हें अनुशासन की जरूरत है। लेकिन अनुशासन बाहर से आरोपित नहीं होना चाहिए; अन्यथा यह अपराध- भाव निर्मित कर देता है। अनुशासन तो भीतरी समझ से आना चाहिए, तब वह सुंदर होता है। और अंतर बहुत सूक्ष्म है। तुम्हें कहा जा सकता है कुछ करने के लिए, और फिर तुम करते हो वैसा, लेकिन तुम उसे गुलाम की भांति करते हो। लेकिन तुम्हें कोई बात समझाई जाती है और समझ से तुम करते हो उसे, फिर तुम उसे मालिक की भांति करते हो। जब तुम मालिक होते हो, तब तुम सुंदर होते हो; जब तुम गुलाम होते हो, तब तुम असुंदर हो जाते हो। मैंने एक पुराना यहदी मजाक सुना है। एक जम्बाक नाम का दर्जी था। एक आदमी आया उसके पास। उसका सूट सिल कर तैयार था और वह उसे लेने आया था, किंतु उस आदमी ने देखा कि सूट की एक बांह लंबी थी, एक छोटी थी। जुम्बाक दर्जी ने कहा, 'तो क्या हुआ? तुम क्यों इतना झगड़ा खड़ा कर रहे हो? देखो तो कितना खूबसूरत सिला है। और इतनी छोटी सी खराबी के लिए तुम इतना झगड़ा कर रहे हो! तुम अपनी बांह थोड़ी भीतर खींच सकते हो, और तब आस्तीन बिलकुल ठीक आएगी।' तो उस आदमी ने कोशिश की, लेकिन जब उसने अपनी बांह को भीतर खींचा तो उसे लगा कि पीठ पर बहुत सलवटें हो गई हैं। उसने कहा, 'अब पीठ पर बहुत सलवटें हैं!' उस जुम्बाक दर्जी ने कहा, 'तो क्या हुआ? तुम थोड़ा झुक सकते हो, लेकिन यह बेहतरीन सिला है और मैं इसे बदलने वाला नहीं। यह कितना सुंदर लगता है।' तो वह आदमी कुबड़े की भांति झुका हुआ बाहर आया। जब वह घर जा रहा था तो बहुत कठिन था चलना, क्योंकि एक हाथ भीतर खींचे रखना था, और फिर उसे झुके रहना था जिससे कि सूट सुंदर बना रहे। आदमी तो बिलकुल भुला ही दिया गया, कोट ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया। रास्ते में उसे कोई
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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