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________________ कोई लक्ष्य नहीं है। उनके पास केवल ऊर्जा है कुछ न कुछ करते रहने के लिए। ये लोग संसार के खतरनाक लोग हैं-आलसी लोगों से ज्यादा खतरनाक। इस दूसरी श्रेणी से ही आए हैं सारे एडोल्फ हिटलर, मुसोलिनी, नेपोलियन, सिकंदर। सारे उपद्रवी आते हैं इस दूसरी श्रेणी से, क्योंकि उनके पास ऊर्जा होती है-एक बेचैन ऊर्जा। फिर तीसरी तरह के लोग हैं, जिन्हें ढूंढ निकालना दुर्लभ है : कहीं कोई लाओत्सु बैठा होता है मौनअकर्मण्य नहीं-निश्चेष्ट। न सक्रिय, न अकर्मण्य-निष्किय; ऊर्जा से भरा-पूरा, एक ऊर्जा-कुंड, लेकिन मौन बैठा हुआ। क्या तुमने ध्यान से देखा है किसी को शांत-मौन बैठे हुए, ऊर्जा से आपूरित? तुम एक आभामंडल अनुभव करते हो उसके चारों ओर, जीवंतता से दीप्तिमान, लेकिन फिर भी शांत-कुछ न करते हुए, मात्र होने में थिर। और योग है इन तीनों के बीच संतुलन पा लेना। यदि तुम इन तीनों के बीच संतुलन पा लो तो अचानक तुम इनके पार चले जाते हो। यदि कोई एक गुण ज्यादा होता है बाकी दो गुणों से तो वही तुम्हारी समस्या बन जाता है। यदि तुम सक्रिय कम और आलसी ज्यादा हो तो आलस्य तुम्हारी समस्या बन जाएगा. तुम उसके द्वारा पीड़ा पाओगे। यदि सक्रियता ज्यादा है आलस्य से तो तुम अपनी सक्रियता द्वारा दुख पाओगे। और तीसरा कभी ज्यादा नहीं होता, वह सदा कम ही होता है, लेकिन यदि यह सिद्धांततः संभव भी हो-कि कोई जरूरत से ज्यादा अच्छा हो तो यह बात भी एक दुख बन जाएगी उसके लिए, यह भी एक असंतुलन निर्मित करेगी। एक सम्यक जीवन संतुलन का जीवन होता है। बुद्ध के पास आठ सिद्धात हैं अपने शिष्यों के लिए। प्रत्येक सिदधात के आगे वे जोड़ देते हैं एक शब्द-सम्यक। यदि वे कहते हैं 'होशपूर्ण होओ' तो केवल 'स्मृति' नहीं कहते; वे कहते हैं, 'सम्यक स्मृति'। अंग्रेजी में सदा इसका अनुवाद किया जाता रहा है 'राइट मेमोरी'| यदि वे कहते 'श्रम', तो वे सदा यही कहते, 'सम्यक श्रम'।'सम्यक' का अर्थ है संतुलन।'सम्यक' का अर्थ है समता। समाधि के लिए भी, ध्यान के लिए भी बुद्ध कहते हैं, 'सम्यक समाधि'। समाधि भी अति हो सकती है, और तब यह खतरनाक हो जाएगी। अच्छाई भी अति हो सकती है, और तब यह खतरनाक हो जाएगी। समता मुख्य तत्व होना चाहिए। जो कुछ भी करो, तुम सदा संतुलित रहना रस्सी पर चलते आदमी की भांति, निरंतर संतुलन बनाए रखना। यही है सम्यकत्व, संतुलन का तत्व। वह व्यक्ति जो परम मिलन को, परम योग को उपलब्ध होना चाहता है, उसे गहन संतुलन में रहना होता है। संतुलन में तुम तीनों गुणों के पार चले जाते हो। तुम गुणातीत हो जाते हो : तुम इन तीनों गुणों का अतिक्रमण कर जाते हो। तुम अब इस संसार के हिस्से नहीं रहते; तुम इसके पार चले जाते हो।
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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