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________________ अस्तित्व उसे नहीं खोलेगा; वह आक्रामक नहीं है। प्रेम तक में भी वह आक्रामक नहीं है। इसीलिए मैं कहता हूं कि वह प्रतिसंवेदित होता है। गलत प्रश्न मत पूछो। मत पूछो कि 'क्या अस्तित्व मुझसे प्रेम करता है?' अस्तित्व से प्रेम करो और तुम पाओगे कि तुम्हारा प्रेम कुछ भी नहीं है। अस्तित्व तुम्हें इतना अनंत प्रेम देता है, तुम्हारे प्रेम को इतने असीम ढंग से प्रतिसंवेदित करता है लेकिन वह है प्रतिसंवेदन ही-अस्तित्व कभी पहल नहीं करता; वह प्रतीक्षा करता है। और यह बात सुंदर है कि वह प्रतीक्षा करता है। वरना तो प्रेम का सारा सौंदर्य ही खो जाएगा। लेकिन यह प्रश्न उठता है, इसका संबंध तुम्हारे मन से है। मनुष्य का मन इसी तरह काम करता है, वह सदा यही पूछता है, 'क्या दूसरा प्रेम करता है मुझसे?' स्त्री, पत्नी पूछती है, 'क्या पति प्रेम करता है मुझसे?' पति पूछता रहता है, 'क्या पत्नी, स्त्री, प्रेम करती है मुझसे?' बच्चे पूछते हैं, 'क्या मां-बाप प्रेम करते हैं हमें?' और माता-पिता सोचते हैं कि बच्चे उन्हें प्रेम करते हैं या नहीं? तुम सदा दूसरे के विषय में पूछते हो। गलत प्रश्न पूछ रहे हो तुम। गलत दिशा में बढ़ रहे हो तुम। तुम्हारे सामने दीवार आ जाएगी; तुम द्वार न पाओगे। तुम्हें चोट लगेगी, क्योंकि तुम टकराओगे दीवार से। शुरुआत ही गलत है। तुम्हें सदा पूछना चाहिए, 'क्या मैं प्रेम करता हूं पत्नी से?' 'क्या मैं प्रेम करती हूं पति से?' 'क्या मैं प्रेम करता हूं बच्चों से? 'क्या मैं प्रेम करता हूं अपने माता-पिता से?' -क्या तुम प्रेम करते हो? और यही है रहस्य. यदि तुम प्रेम करते हो, तो अचानक तुम पाते हो कि हर कोई प्रेम करता है तुम से। यदि तुम प्रेम करते हो पत्नी से, तो वह प्रेम करती है तुम्हें, यदि तुम प्रेम करती हो पति से, तो वह प्रेम करता है तुम्हें; यदि तुम प्रेम करते हो बच्चों से, तो वे प्रेम करते हैं तुम्हें। जो व्यक्ति अपने हृदय से प्रेम करता है, वह चारों ओर से प्रेम पाता है। प्रेम कभी निष्फल नहीं जाता। वह फूलता है, फलता है। लेकिन तुम्हें ठीक शुरुआत करनी होगी, ठीक मार्ग पर चलना होगा; अन्यथा प्रत्येक व्यक्ति पूछ रहा है, 'क्या दूसरा प्रेम करता है मुझसे?' और दूसरा भी यही पूछ रहा है। तब कोई प्रेम नहीं करता; तब प्रेम एक काल्पनिक स्वप्न बन जाता है; तब प्रेम खो जाता है धरती से-जैसा कि हो गया है। प्रेम खो गया है; वह केवल कवियों की कविताओं में जीवित है-मन की उड़ान, कल्पनाएं, स्वप्न। वास्तविकता अब नितांत शून्य है प्रेम से, क्योंकि तुम शुरुआत ही गलत प्रश्न से करते हो। छोड़ो इस प्रश्न को रोग की भांति। छोड़ो इसे और बचो इससे, और सदा पूछो, 'क्या मैं प्रेम करता हूं?' और यही बात चाबी बन जाएगी। इस चाबी द्वारा तुम कोई भी हृदय खोल सकते हो। और इस चाबी द्वारा, धीरे-धीरे तुम इतने कुशल हो जाओगे कि तुम इस चाबी द्वारा पूरे अस्तित्व को खोल सकते हो; तब यह प्रार्थना बन जाती है।
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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