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________________ और बहुत सारे लोग होते हैं, क्योंकि वे सहायक हो सकते हैं। तुम मदद कर सकते हो किसी की जो एकदम पीछे हो तुम्हारे। उच्च विद्यालय का व्यक्ति आ सकता है प्राथमिक विद्यालय में और सिखा सकता है। प्राथमिक विद्यालय का एक छोटा लड़का जा सकता है के. जी. मे-किडर-गाटेंन में और कर सकता है मदद। परिधि से लेकर केंद्र तक, बहुत सारी अवस्थाएं हैं, बहुत सारे स्थल हैं। रहस्य-विद्यालय का अर्थ होता है. जहां सब प्रकार के लोग एक गहरी लयबद्धता में बने रहते हैं, एक परिवार के रूप में रहते हैं : बिलकुल प्रथम से लेकर बिलकुल अंतिम तक, प्रारंभ से लेकर समाप्ति तक, आरंभ से लेकर अंत तक। बहुत सहायता संभव हो जाती है इस ढंग से, क्योंकि तुम उसकी मदद कर सकते हो जो पीछे होता है तुमसे। तुम कह सकते हो उससे, 'मत चिंतित होओ। बस, बढ़ते रहो। ऐसा घटता है और शांत हो जाता है अपने से ही। इसके साथ ज्यादा मत जुड़ जाना। अलग-थलग बने रहना। यह आता है और चला जाता है। किसी की जरूरत होती है, जो हाथ बढ़ाकर तुम्हारी मदद करे। और सद्गुरु की जरूरत होती है, जो ध्यान रख सके सारी अवस्थाओं का; शिखर से लेकर एकदम घाटी तक का, जो समग्र बोध पा सकता हो सारी संभावनाओं का। अन्यथा, सवितर्क समाधि की इस अवस्था में, बहुत से पागल हो जाते हैं। या, बहुत से इतने घबड़ा जाते हैं कि वे दूर भाग आते हैं केंद्र से और चिपकने लगते हैं परिधि से, क्योंकि वहां, कम से कम किसी एक प्रकार की सुव्यवस्था तो होती है। कम से कम कुछ अज्ञात तो प्रवेश नहीं करता है वहां, अपरिचित नहीं आ पहुंचता वहां। तुम परिचित होते हो; अजनबी दस्तक नहीं देते तुम्हारे द्वार पर। लेकिन जो सवितर्क समाधि तक पहुंच गया है यदि वह परिधि तक वापस चला जाता है, तो कुछ सुलझेगा नहीं। वह फिर वही कभी नहीं हो सकता। अब वह कभी भी पूरी तरह परिधि का नहीं हो सकता। इसलिए वह बात कुछ काम की नहीं। वह परिधि का हिस्सा कभी नहीं हो पाएगा। और वह वहां पर होगा, ज्यादा और ज्यादा भ्रमित। एक बार तुमने जान लिया है किसी चीज को, तो तुम कैसे मदद कर सकते हो स्वयं की, उस बोध से अनजान बन कर? एक बार जान लिया तुमने, तो जान लिया है तुमने। तुम दूर हो सकते हो उससे, तुम बंद कर सकते हो अपनी आंखें, लेकिन तो भी वह होता तो है वहां पर और वह तुम्हारे पीछे पड़ा रहेगा तुम्हारी जिंदगी भर। यदि रहस्यविद्यालय नहीं होता और सद्गुरु नहीं होता, तो तुम बन जाओगे बहुत जटिल व्यक्ति। संसार से तुम जुड़ नहीं सकते, बाजार का तुम्हारे लिए कुछ अर्थ नहीं रहता; और संसार के पार जाने से तुम डरते रहते हो।
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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