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________________ साफ नहीं कर सकते उन्हें । तुमने पा लिया है उन्हें और दूर फेंक दिया है उन्हें। तुम बिलकुल नग्न हो, अपनी अस्तित्वगत नग्नता में या तुमने वह सब हटा दिया है जिसके साथ तुम तादात्म्य बना चुके हो। अब तुम नहीं कहते कि तुम कौन हो। रूप, नाम, परिवार, देह, मन; हर चीज दूर हट गयी है। केवल वही मौजूद रहा है वहां जो हट नहीं सकता। यह विधि है उपनिषदों की। वे इसे कहते हैं नेति नेति । वे कहते हैं, 'मैं न यह हूं न वह हूं।' वे कहे जाते हैं और कहे जाते हैं, और एक घड़ी आती है जब केवल साक्षी बचता है, और साक्षी को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। वह है तुम्हारे अस्तित्व का चरम स्रोत, उसकी असली आंतरिकता ही तुम इसे अस्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि कौन अस्वीकार करेगा इसे ? अब दो अस्तित्व नहीं रखते, केवल एक ही होता है तब होता है नियंत्रण। तब मन की क्रिया नियंत्रण में रहती है। - तो यह ऐसा नहीं है जैसे कि छोटे बच्चे को जबद्रस्ती माता - पिता द्वारा कोने में धकेल दिया गया हो और उससे कह दिया हो, 'जाओ वहां चुपचाप बैठ जाओ। वह लगता है नियंत्रण में है, पर वह होता नहीं। लगता है कि वह नियंत्रण में है, पर वह होता है बेचैन, अवश-भीतर होती है बड़ी हलचल। . एक छोटे बच्चे पर मां ने जबद्रस्ती की वह खूब दौड़ रहा था चारों तरफ उसे तीन बार मां ने चुपचाप बैठ जाने को कहा। फिर चौथी बार वह बोली, ' अब तुम चुप बैठते हो या कि मैं आऊं और पीटू तुम्हें और बच्चे समझते हैं कि कब मां का सचमुच ही ऐसा मतलब होता है वह समझ गया । वह बैठ गया, लेकिन वह कहने लगा मां से, मैं बाहर चुपचाप बैठा हूं लेकिन भीतर मैं अब भी दौड़ रहा हूं। तुम बाहरी तौर पर शांत हो जाने के लिए मन पर जबदस्ती कर सकते हो; भीतर तो वह दौड़ता ही चला जाएगा। वस्तुत: वह ज्यादा तेज दौड़ेगा क्योंकि मन विरोध करता है नियंत्रण का । हर कोई विरोध करता है नियंत्रण का। नहीं, यह नहीं है कोई ढंग। इस ढंग से तुम स्वयं को मार तो सकते हो लेकिन तुम शाश्वत जीवन को उपलब्ध नहीं हो सकते। यह तो एक प्रकार की अपंगता हुई। जब बुद्ध मौन बैठे होते हैं तो कोई भीतर दौड़ नहीं होती, नहीं । वस्तुतः भीतर वे मौन हो चुके होते हैं, और वह मौन उमड़ कर प्रवाहित हो आया है उनके बाहर । विपरीत नहीं । तुम बाहरी तौर पर मौन होने के लिये स्वयं पर जबदस्ती करते हो, और तुम सोचते हो कि बाहर मौन करने से, भीतर मौन हो जाएगा। तुम समझते ही नहीं मौन का विज्ञान। यदि तुम भीतर मौन होते हो, तो बाहर सब उससे आप्लावित हो जाएगा। वह तो बस भीतर के पीछे चलता है। परिधि अनुसरण करती है केंद्र का, लेकिन केंद्र को परिधि का अनुसरण करने वाला नहीं बना सकते यह असंभव होता है। तो सदा याद रखना कि सारी धार्मिक खोज भीतर से बाहर की ओर होती है, इससे उल्टी नहीं। ---- जब मन की क्रिया नियंत्रण में होती है तब मन बन जाता है शुद्ध स्फटिक की भांति ।
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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