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________________ । विचार आते हैं, केवल आमंत्रित मेहमानों की भांति ही। वे बिन बुलाए हुए कभी नहीं आते, यह बात जरा ध्यान में रख लेना। कई बार तुम सोचते हो, मैंने तो कभी नहीं बुलाया था इस विचार को, लेकिन जरूर गलत होओगे तुम। किसी ढंग से, कभी - तुम शायद उसके बारे में पूरी तरह भूल चुके - हो तुमने ही बुलाया होगा उसे बिना बुलाए कभी नहीं आते विचार पहले तुम बुलाते हो उन्हें, केवल तभी आते हैं वे। जब तुम नहीं बुलाते, तो कई बार मात्र पुरानी आदत के कारण ही - क्योंकि तुम पुराने मित्र रहे हो—वे खटखटा सकते हैं तुम्हारा द्वार। लेकिन यदि तुम सहयोग नहीं देते तो धीरे- धीरे वे भूल जाते हैं तुम्हारे बारे में, वे नहीं आते तुम तक। और जब विचार अपने से आने बंद हो जाते हैं, तो वह होता है नियंत्रण ऐसा नहीं है कि तुम नियंत्रित करते हो विचारों को, तुम तो केवल अपनी सत्ता के आंतरिक मंदिर तक पहुंच जाते हो, और विचार अपने से नियंत्रित होते हैं। संचित अनुभव वह : आकांक्षा की है, वह सब फिर भी एक और दृष्टिकोण से, मन है अतीत, एक अर्थ में है, स्मृति, क सब जो तुमने किया है, वह सब जो तुमने सोचा है, वह सब जिसकी तुमने जिसका तुमने सपना देखा है- हर चीज तुम्हारा समग्र अतीत, तुम्हारी स्मृति तक तुम स्मृति से छुटकारा नहीं पा लेते हो, तुम मन को नियंत्रित करने के योग्य न रहोगे । स्मृति है मन। और जब स्मृति से कैसे छुटकारा हो? वह हमेशा वहां होती हैं तुम्हारे पीछे-पीछे आती हुई । वस्तुतः तुम ही हो स्मृति, तो कैसे छुटकारा हो उससे? तुम अपनी स्मृतियों के अतिरिक्त हो क्या? जब मैं पूछता हूं पूछता हूं' हो तुम?' तुम मुझे बताते हो तुम्हारा नाम। यह है तुम्हारी स्मृति । कुछ समय पहले तुम्हारे मातापिता ने तुम्हें दिया था वह नाम मैं तुमसे पूछता हूं 'कौन हो तुम?' और तुम मुझे बताते हो तुम्हारे परिवार के बारे में, तुम्हारे माता-पिता के बारे में यह है स्मृति में पूछता हूं तुमसे, 'कौन हो तुम?' और तुम बढ़ाते हो मुझे तुम्हारी शिक्षा के बारे में, तुम्हारी डिबियों के बारे में कि तुमने एम. ए. किया, या कि तुम्हारे पास पी एच. डी. है या कि तुम इंजीनियर हो या कि तुम आर्किटेक्ट हो। यह है स्मृति । जब में पूछता हूं तुमसे कि कौन हो तुम, तो यदि तुम सचमुच ही भीतर झांकते हो, तो तुम्हारा एकमात्र उत्तर यही हो सकता है कि 'मैं नहीं जानता। 'जो कुछ भी कहते हो तुम, वह होगी स्मृति, तुम नहीं। वास्तविक प्रामाणिक उत्तर तो केवल एक ही हो सकता है कि मैं नहीं जानता, क्योंकि स्वयं को जानना अंतिम बात ही है। मैं दे सकता हूं उत्तर कि कौन हूं मैं, तो भी मैं दूंगा नहीं उत्तर । तुम इसका उत्तर नहीं दे सकते कि तुम कौन हो, लेकिन तुम तैयार रहते हो उत्तर सहित । जो जानते हैं वे इस बारे में चुप रहते हैं। क्योंकि यदि सारी स्मृति निकाल फेंक दी जाए, और सारी भाषा निकाल, हटा दी जाए, तो नहीं बताया जा सकता कि मैं कौन हूं। मैं देख सकता हूं तुम में, मैं दे सकता हूं तुम्हें संकेत; मैं इसे दे सकता हूं तुम्हें अपने समग्र अस्तित्व सहित - यही होता है मेरा उत्तर । उत्तर शब्दों में नहीं दिया जा सकता है, क्योंकि जो शब्दों में दिया जाता है वह स्मृति का, मन का ही हिस्सा होगा, चेतना का नहीं।
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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