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________________ सुनोगे, पर तुम सुनोगे मुझे, उसे नहीं जो कि मैं कहता हूं। तुम सुनोगे सारतत्व को, उसे धारण करने वाले पात्र को नहीं; शब्दों को नहीं बल्कि शब्दविहीन संदेश को धीरे - धीरे ऐसा होगा ही। कितनी देर तक तुम मकान बनाए जा सकते हो, यह खूब जानते हुए कि उसे गिराना ही होगा? यही अर्थ है मेरी सारी विरोधी बातों का। कृष्णमूर्ति ने भी, जो कि कहते हैं किसी सिद्धांत की जरूरत नहीं, लोगों में एक सिद्धांत निर्मित कर दिया है, क्योंकि वे विरोधात्मक नहीं हैं। उन्होंने लोगों में उतार दिया है बड़े गहरे में सिद्धांत। मैंने बहुत तरह के लोग देखे हैं, लेकिन कृष्णमूर्ति के अनुयायियों जैसे नहीं देखे। वे चिपक जाते हैं, बिलकुल चिपक ही गए हैं वे, क्योंकि वह आदमी बड़ा अविरोधी है। चालीस वर्षों से वह कह रहा है वही बात, बार बार कह रहा है। अनुयायियों ने बना ली हैं गगनचुंबी इमारतें चालीस वर्ष में निरंतर इसी में बढ़ते, उनकी इमारत बढ़ती ही जाती है, और और आगे ही आगे बढ़ती जाती है। मैं तुम्हें ऐसा नहीं करने दूंगा। मैं चाहता हूं, तुम शब्दों से संपूर्णतया खाली हो जाओ। मेरा सारा प्रयोजन ही यही है तुमसे बात करने का एक दिन तुम जान जाओगे कि मैं बोल रहा हूं और तुम ढांचा नहीं बना रहे हो। यह भली-भांति जानते हुए कि मैं खंडन कर दूंगा उसका जो कुछ भी मैं कह रहा हूं तुम चिपकते नहीं हो फिर यदि तुम नहीं चिपकते यदि तुम शून्य ही हुए रहते हो, तो तुम मुझे सुन पाओगे, न कि उसे जो कि मैं कहता हूं। और संपूर्णतया अलग ही बात है उस सत्ता को सुनना जो कि मैं हूं उस अस्तित्व को सुनना जो कि बिलकुल अभी घट रहा है, इसी क्षण घट रहा है। । मैं तो केवल एक झरोखा हूं तुम देख सकते हो मुझसे और उस पार का कुछ खुल जाता है। झरोखे की ओर मत देखो, उसमें से देखो मत देखना झरोखे की चौखट की ओर मेरे सारे शब्द झरोखे की चौखट हैं उनमें से उनके पार देखना। भूल जाना शब्दों को और चौखट के ढांचे को और शब्दातीत, कालातीत कुछ मौजूद होता है, आकाश मौजूद होता है। यदि तुम चिपक जाते हो चौखट से, तो कैसे, कैसे पाओगे तुम पंख? इसीलिए मैं शब्दों को गिराता जाता हूं ताकि तुम चिपको नहीं ढांचे से । तुम्हें पंख पाने ही हैं तुम्हें गुजरना होगा मुझसे, लेकिन तुम्हें जाना होगा मुझसे दूर। तुम्हें गुजरना होगा मुझमें से, लेकिन तुम्हें भूल जाना होगा मुझे पूरी तरह से। तुम्हें गुजर जाना है मुझमें से, लेकिन पीछे देखने की कोई जरूरत नहीं एक विशाल आकाश मौजूद है जब मैं विपरीत बात करता हूं तो मैं तुम्हें दे देता हूं एक स्वाद उस विशालता का । बहुत आसान होता तुम्हारे लिए, यदि मैं एक ही बात को बार-बार कहता हुआ, तुम्हें एक ही सिद्धांत से फिर फिर अनुकूलित करता हुआ एक स्वर का आदमी होता तुम ज्यादा प्रसन्न हो गए होते, लेकिन वह प्रसन्नता नासमझी भरी होती, क्योंकि तब तुम कभी तैयार न हुए होते आकाश में उड़ान भरने को।
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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